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________________ ६. निर्जराधिकार अनन्तर निर्जरा का प्रवेश होता है शार्दूलविक्रीडितछन्द रागाद्यास्रवरोधतो निजधुरां धृत्वा परः संवरः कर्मागामि समस्तमेव भरतो दूरान्निरुन्धन् स्थितः । प्रारबद्धं तु तदेव दग्धमधुना व्याजृम्भते निर्जरा ज्ञानज्योतिरपावृतं न हि यतो रागादिभिर्मूर्च्छति।।१३३।। अर्थ-उधर रागादिक आस्रवों के रुकने से निजधुरा को धारण कर उत्कृष्ट संवर, आगामी सभी कर्मों को अपने अतिशय से दूर से ही रोकता हुआ स्थित था, इधर अब पहले के बँधे हुए कर्मों को जलाने के लिये निर्जरारूप अग्नि विस्तार को प्राप्त हो रही है। इस तरह संवर और निर्जरा के द्वारा ज्ञानज्योति इस प्रकार प्रकट होती है कि जिससे वह रागादिक के द्वारा फिर से मूछित नहीं होती। भावार्थ-राग-द्वेष आदिक आस्रव को रोककर जब संवर अपनी पूर्ण शक्ति के साथ प्रकट होता है तब वह अपनी सामर्थ्य से आगामी कर्मों को दूर से रोक देता है अर्थात् संवर के होने पर आगामी कर्मों का आगमन रुक जाता है और पहले के बँधे हुए जो कर्म सत्ता में रहते हैं उन्हें नष्ट करने के लिये निर्जरा आगे आती है। इस तरह संवरपूर्वक निर्जरा के होने पर इस जीव के वह ज्ञानज्योति-वह वीतराग विज्ञानता प्रकट होती है कि जो फिर से रागादिक से मच्छित नहीं होती।।१३३।। आगे सम्यग्दृष्टि की सभी प्रवृत्तियाँ निर्जरा का निमित्त हैं, कहते हैं उपभोगमिंदियेहिंदव्वाणमचेदणाणमिदराणं। जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं।।१९३।। अर्थ- सम्यग्दृष्टि चेतन और अचेतन पदार्थों का इन्द्रियों के द्वारा जो उपभोग करता है वह सब निर्जरा का ही कारण होता है। विशेषार्थ- रागरहित मनुष्य का उपभोग निर्जरा के लिये ही होता है, और रागादिकभावों के सद्भाव से मिथ्यादृष्टि जीव के जो चेतन-अचेतन द्रव्यों का उपभोग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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