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संवराधिकार
२१७ आकाश नामक एकद्रव्य है, उसके आधाराधेयभाव पर विचार कीजिये। आकाश से भिन्न कोई महान् पदार्थ नहीं है जिसके आश्रय यह रहे, अत: आकाश ही आधार
और आकाश ही आधेय है। इसी तरह ज्ञान ही आधार और ज्ञान ही आधेय है। इसी प्रकार क्रोधादिक में भी यह नियम है। इस तरह साधु रीति से भेदज्ञान की सिद्धि निर्विवाद है। इस पद्धति से जब इस भेदज्ञान में विपरीतज्ञान की कणिका भी नहीं रहती तब यह अविचल रूप से स्थिर हो जाता है। उस काल में यह ज्ञान शुद्धोपयोगमय आत्मरूप होता हुआ राग-द्वेष-मोहभाव को नहीं करता है। अतएव इसी भेदज्ञान के बल से शुद्ध आत्मा की उपलब्धि होती है और शुद्ध आत्मा की उपलब्धि से राग-द्वेष-मोह के अभावरूप संवर होता है।।१८१-१८३।। अब अमृतचन्द्रस्वामी कलशा के द्वारा इसी भेदज्ञान का वर्णन करते हैं
शार्दूलविक्रीडितछन्द चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतोः कृत्वा विभाग द्वयो
रन्तर्दारुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च। भेदज्ञानमुदेति निर्मलमिदं मोदध्वमध्यासिताः
शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना सन्तो द्वितीयच्युताः।।१२६।। अर्थ- ज्ञान चैतन्यरूपता को धारण करता है और राग पद्गल के निमित्त से उत्पन्न होने के कारण जड़रूपता को धारण करता है। इस प्रकार इन दोनों के बीच में तीक्ष्ण छेनी के द्वारा विभाग करके निर्मल भेदज्ञान उत्पन्न होता है। सो हे सत्पुरुषों! रागादि से च्युत होकर इस समय शुद्धज्ञानघनस्वरूप इस एक भेदज्ञान का आश्रय कर आनन्द का अनुभव करो।।१२६।। .
अब भेदविज्ञान से ही शुद्धात्मा की उपलब्धि किस तरह होती है, यह कहते हैं
जह कणयमग्गितवियं पिकणयहावं ण तं परिच्चयइ। तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णाणी उणाणित्तं ।।१८४।। एवं जाणइ णाणी अण्णाणी मुणदि रायमेवाद। अण्णाणतमोच्छण्णो आदसहावं अयाणंतो।।१८५।।
(युग्मम्) अर्थ- जिस प्रकार अग्नि से तपाया हआ भी सुवर्ण अपने सुवर्णपन को नहीं छोड़ता है उसी प्रकार कर्मोदय से तपाया हुआ भी ज्ञानी अपने ज्ञानीपन को
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