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________________ २१६ समयसार अब प्रथम ही समस्त कर्मों के संवर का परम उपाय जो भेदविज्ञान है उसकी प्रशंसा करते हैं उवओए उवओगो कोहादिसु णत्थि को वि उवओगो। कोहे कोहो चेव हि उवओगे णत्थि खलु कोहो ।।१८१।। अट्ठवियप्पे कम्मे णोकम्मे चावि णत्थि उवओगो। उवओगति य कम्मं णोकम्मं चावि णो अत्थि ।।१८२ एयं तु अविवरीदं णाणं जइया उ होदि जीवस्स। तइया ण किंचि कुव्वदि भावं उवओगसुद्धप्या।।१८३।। (त्रिकलम्) अर्थ- उपयोग में उपयोग है, क्रोधादिक में कोई भी उपयोग नहीं है, निश्चय से क्रोध में ही क्रोध है, उपयोग में क्रोध नहीं है, आठ प्रकार के कर्म में तथा शरीररूप नोकर्म में उपयोग नहीं है और उपयोग में कर्म तथा नोकर्म नहीं हैं। इस प्रकार का सम्यग्ज्ञान जब जीव को हो जाता है तब उपयोग से शुद्ध आत्मावाला अर्थात् शुद्धोपयोगरूप होता हुआ यह जीव कुछ भी भाव-क्रोधादि विकृतभाव नहीं करता है। विशेषार्थ-निश्चय से कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य का नहीं होता, क्योंकि दोनों द्रव्यों के भिन्न-भिन्न प्रदेश होने से एक सता नहीं हो सकती। अत: एकद्रव्य का अन्य के साथ आधाराधेय सम्बन्ध नहीं होता। इस कारण द्रव्य का स्वरूप में प्रतिष्ठित होना ही उसका आधाराधेय सम्बन्ध है। इसलिये ज्ञान, जाननरूप क्रिया में प्रतिष्ठित है क्योंकि जाननरूप क्रिया, ज्ञान से अभिन्न होने के कारण ज्ञान में ही रह सकती है तथा क्रोधादिक क्रोधनरूप क्रिया में प्रतिष्ठित हैं क्योंकि क्रोधनरूप क्रिया क्रोधादिकों से अभिन्न होने के कारण क्रोधादिकों में ही हो सकती है। क्रोधादिक भावों में, ज्ञानावरणादिक कर्मों में तथा शरीरादिक कर्मों में ज्ञान नहीं है और न ज्ञान में क्रोधादिकभाव, ज्ञानावरणादिक कर्म तथा शरीरादिक नोकर्म ही हैं क्योंकि इनका स्वरूप परस्पर में अत्यन्त भिन्न है इसीसे इनके परस्पर में परमार्थ से आधाराधेयभाव नहीं है। जैसे ज्ञान का जाननपन स्वरूप है वैसे क्रुद्धता स्वरूप नहीं है, इसी तरह क्रोध का जैसे ऋद्धता स्वरूप है वैसे जाननपन स्वरूप नहीं है, ऐसी ही व्यवस्था है। इससे विपरीत व्यवस्था करने को कोई भी समर्थ नहीं, क्योंकि जानपनरूप और क्रोधपनरूप क्रिया, भावभेद से भिन्न-भिन्न हैं, तथा इन क्रियाओं में स्वरूप भेद भी है, इससे यह भिन्न-भिन्न वस्तुएँ हैं। इसी से ज्ञान और अज्ञान का परस्पर में आधाराधेयभाव नहीं है। यही बात दृष्टान्त द्वारा दिखाते हैं जैसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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