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५ संवराधिकार
मोक्षमार्ग का प्रथम उपयोगी अंग संवरतत्त्व है, निर्जरा तो प्रत्येक प्राणी के प्रत्येक समय होती रहती है क्योंकि 'कर्मफलानुभवनं हि निर्जरा' अर्थात् कर्म का फल भोगना ही निर्जरा है। परन्तु ऐसी निर्जरा कार्यकारिणी नहीं, संवरतत्त्व के बिना निर्जरा का कोई उत्कर्ष नहीं। अत: मोक्षमार्गोपयोगी संवरतत्त्व को कहते हैं।
अब संवरतत्त्व का रंगभूमि में प्रवेश होता हैं
आगे श्री अमृतचन्द्र स्वामी संवरतत्त्व की प्राप्ति में परम सहायक भेदविज्ञानरूप चैतन्यज्योति का वर्णन करते हैं
शार्दूलविक्रीडितछन्द आसंसारविरोधिसंवरजयैकान्तावलिप्तास्रव
न्यक्कारात्प्रतिलब्धनित्यविजयं संपादयत्संवरम्। व्यावृत्तं पररूपतो नियमितं सम्यक्स्वरूपे स्फुर
ज्ज्योतिश्चिन्मयमुज्ज्वलं निजरसप्राग्भारमुज्जृम्भते।।१२५।। अर्थ- अनादिसंसार से अपने विरोधी संवर को विजय कर एकान्त से मदोन्मत्त आस्रव का तिरस्कार कर जिसने नित्य विजय प्राप्त की है ऐसे संवर को प्राप्त कराने वाला, परद्रव्य तथा परद्रव्य के निमित्त से होने वाले भावों से भिन्न, अपने स्वरूप में स्थिर, सातिशय उज्ज्वल, स्फुरायमान तथा निजरस के भार से पूरित चैतन्यमय ज्ञानज्योति उदय को प्राप्त होती हुई विस्तार को प्राप्त होती है।
भावार्थ- संवर अनादिकालीन नहीं है किन्तु आस्रव अनादिकालीन है, यह आस्रव संवर का विरोधी है उसे उत्पन्न ही नहीं होने दिया। अतएव उसे जीतकर विजय के उल्लास में मदावलिप्त हो रहा है। परन्तु जब भेदज्ञानरूपी चिन्मय ज्योति का प्रकाश होता है तब उत्पन्न हुआ संवर आस्रव का तिरस्कार कर स्थायी विजय को प्राप्त करता है। वह भेदज्ञानरूपी चिन्मय ज्योति, कर्म-नोकर्म रूप पुद्गलद्रव्य से तथा उनके निमित्त से जायमान रागादिक चिदाभासों से आत्मा को पृथक् करती है, अत्यन्त उज्ज्वल है और आत्मिक रस से परिपूर्ण है। जब इस ज्योति का उदय हो जाता है तभी संवर की प्राप्ति होती है। इसलिये सर्वप्रथम उसी की महिमा का गान किया गया है।।१२५।।
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