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समयसार
आगे परमतत्त्व का अन्तरङ्ग में अवलोकन करनेवाले पुरुष के पूर्ण ज्ञान प्रकट होता है, यह कलशा द्वारा कहते हैं
मन्दाक्रान्ताछन्द
रागादीनां झगिति विगमात्सर्वतोऽप्यास्त्रवाणां नित्योद्योतं किमपि परमं वस्तु संपश्यतोऽन्तः । स्फारस्फारैः स्वरसविसरैः प्लावयत्सर्वभावा
नालोकान्तादचलमतुलं ज्ञानमुन्मग्नमेतत्।। १२४ ।।
अर्थ- सब ओर से रागादिक आस्रवों का शीघ्र ही विलय हो जाने के कारण जो निरन्तर प्रकाशमान किसी अनिर्वचनीय परम तत्त्व का अन्तरङ्ग में अवलोकन करता है ऐसे ज्ञानी जीव के अनन्तानन्त स्वकीय रस के समूह से लोकपर्यन्त समस्त पदार्थों को अन्तर्निमग्न करता हुआ अचल और अतुल्य ज्ञान प्रकट होता है ।। १२४ ।।
इस प्रकार आस्रवतत्त्व रङ्गभूमि से बाहर निकल गया।
इस तरह श्रीकुन्दकुन्दाचार्य विरचित समयप्राभृत में आस्रव का निरूपण करनेवाले चतुर्थ अधिकार का प्रवचन पूर्ण हुआ । । ४ । ।
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