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________________ आस्रवाधिकार २१३ अर्थ-जिस प्रकार पुरुष के द्वारा ग्रहण किया गया आहार जठराग्नि से संयुक्त होता हुआ अनेक प्रकार माँस, वसा तथा रुधिर आदि भावोंरूप परिणमन करता है उसी प्रकार ज्ञानी जीव के पूर्वबद्ध प्रत्यय अनेक प्रकार के कर्मों को बाँधते हैं, परन्तु उस समय वे जीव शुद्धनय से च्युत होते हैं। विशेषार्थ-जिस समय ज्ञानी जीव शुद्धनय से च्युत हो जाता है उस समय उसके रागादिक विकृत परिणामों का सद्भाव होने से पूर्व के बँधे हए द्रव्यप्रत्यय पुद्गलकर्म के बन्ध को ज्ञानावरणादिरूप परिणमाने लगते हैं अर्थात् बन्ध के कारण हो जाते हैं, क्योंकि कारण के रहते हुए कार्य की उत्पत्ति अनिवार्य रूप से होती है और यह बात अप्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि पुरुष के द्वारा गृहीत आहार का जठराग्नि के द्वारा रस, रुधिर, माँस और वसा (चर्बी) रूप परिणमन देखा जाता है।।१७९-१८०॥ अब फिर भी शुद्धनय की महिमा दिखाते हैं अनुष्टुप्छन्द इदमेवात्र तात्पर्य हेयः शुद्धनयो न हि। नास्ति बन्धस्तदत्यागात् तत्त्यागादबन्ध एव हि।।१२२।। अर्थ- यहाँ यही तात्पर्य है कि शुद्धनय छोड़ने योग्य नहीं है क्योंकि उसके न छोड़ने से बन्ध नहीं होता और उसके छोड़ने से बन्ध नियम से होता है।।१२२।। अब उसी शुद्धनय का प्रभाव दिखाते हैं शार्दूलविक्रीडितछन्द धीरोदारमहिम्न्यनादिनिधने बोधे निबध्नन् धृति ___ त्याज्य: शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वंकषः कर्मणाम् । तत्रस्थाः स्वमरीचिचक्रमचिरात्संहत्य निर्यद् बहिः पूर्णज्ञानघनौघमेकमचलं पश्यन्ति शान्तं महः।।१२३।। अर्थ-धीर और उदार महिमा वाले अनादिनिधन ज्ञान में जो धीरता को धारण करानेवाला है तथा कर्मों को सर्वतोभावेन निर्मूल करने वाला है ऐसा शुद्धनय पुण्यपुरुषों के द्वारा कदापि त्यागने योग्य नहीं है, क्योंकि उसमें स्थिर रहनेवाले ज्ञानी जीव बाह्य पदार्थों में जानेवाले अपनी किरणों के समूह को शीघ्र ही समेटकर पूर्णज्ञानघन, अद्वितीय, अचल तथा शान्त तेज का अवलोकन करते हैं।।१२३।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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