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________________ २१२ समयसार तरह द्रव्य प्रत्ययों में पद्गलकर्म के प्रति जो कारणपन है उसमें रागादिकभाव कारण पड़ते हैं और सम्यग्दृष्टि जीव के इन रागादिक भावों का अभाव है, इसलिये उसके बन्ध का अभाव कहा गया है।।१७७।१७८।। अब बन्ध से रहित शुद्ध आत्मतत्त्व का अवलोकन कौन करते हैं? यह बताते हुए शुद्धनय की महिमा का गान कलशा द्वारा करते हैं वसन्ततिलकाछन्द अध्यास्य शुद्धनयमुद्धतबोधचिह्न मेकाग्र्यमेव कलयन्ति सदैव ये ते। रागादिमुक्तमनसः सततं भवन्तः पश्यन्ति बन्धविधुरं समयस्य सारम्।।१२० ।। अर्थ-जो महानुभाव उद्धत ज्ञानरूपी चिह्न से युक्त शुद्धनय को अंगीकार कर निरन्तर एकाग्रता का ही अभ्यास करते हैं वे रागादि निर्मुक्त चित्तवाले होते हुए सदा बन्ध से रहित समयसार-शुद्धात्मस्वरूप का अवलोकन करते हैं।।१२०।। आगे शुद्धनय से च्युत होनेवाले पुरुषों की अवस्था का वर्णन करते हैंप्रच्युत्य शुद्धनयतः पुनरेव ये तु रागादियोगमुपयान्ति विमुक्तबोधाः। ते कर्मबन्धमिह बिभ्रति पूर्वबद्ध द्रव्यास्रवैः कृतविचित्रविकल्पजालम्।।१२१।। अर्थ-जो पुरुष शुद्धनय से च्युत होकर अज्ञानी होते हुए फिर से रागादि के साथ सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं वे पूर्वबद्ध द्रव्यास्रवों के द्वारा नाना प्रकार के विकल्पजाल को उत्पन्न करने वाले कर्मबन्ध को धारण करते हैं।।१२१।। आगे दृष्टान्त द्वारा यही दिखाते हैंजह पुरिसेणाहारो गहिओ परिणमइ सो अणेयविहं । मंस-वसा-रुहिरादी भावे उयरग्गिसंजुत्तो।।१७९।। तह णाणिस्स दु पुव्वं जे बद्धा पच्चया बहुवियप्पं । बझंते कम्मं ते णयपरिहीणा उ ते जीवा।।१८०।। (जुगलम्) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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