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________________ २१० समयसार अर्थ-यद्यपि सम्यग्दृष्टि जीव के पूर्व में बाँधे हुए सभी मिथ्यात्व आदि प्रत्यय विद्यमान हैं तथापि विपाकावस्था द्वारा उपभोग में आने पर ही वे रागादि भावों से नवीन कर्मों को बाँधते हैं। जिस प्रकार बाला स्त्री जबतक निरुपभोग्य रहती है तबतक वह पुरुष को स्नेहपाश से नहीं बाँधती, परन्तु वही स्त्री तरुणी होकर जब उपभोग के योग्य हो जाती है तब पुरुष को स्नेहपाश से बाँध लेती है। इसी प्रकार मिथ्यात्वादि प्रत्यय जबतक निरुपभोग्य रहते हैं अर्थात् विपाकावस्था को प्राप्त नहीं होते हैं तबतक वे बन्ध नहीं करते, परन्तु जब निरुपभोग्य रहकर पीछे विपाकावस्था में आने से उपभोग्य हो जाते हैं तब वे रागादिभावों के द्वारा सात या आठ प्रकार के ज्ञानावरणादि कर्मों को बाँधने लगते हैं अर्थात् जब आयु कर्म के बंध का अवसर होता है तब आठ कर्मों को और उसके अनवसार में सात कर्मों को बाँधने लगते हैं। इसी कारण से सम्यग्दृष्टि जीव अबन्धक होता है, क्योंकि रागादिरूप जो आस्रवभाव हैं उनके अभाव में प्रत्यय बन्धक नहीं कहे गये हैं । विशेषार्थ - जैसे तत्काल की विवाही बालस्त्री पहले तो उपभोग योग्य नहीं होती परन्तु वही स्त्री जब तरुणावस्था को प्राप्त हो जाती है तब उपभोग योग्य होने से पुरुष को अपने प्रेमपाश में बाँधकर नाना प्रकार के बन्धन में डाल देती है। इसी प्रकार पहले बाँधे हुए कर्म जबतक सत्ता में विद्यमान रहते हैं तबतक भोगने योग्य न होने से नवीन बन्ध के कारण नहीं होते । परन्तु पीछे चलकर आबाधा काल पूर्ण होने पर जब उदयावली में आने से उपभोग के योग्य हो जाते हैं तब वे उपभोग के अनुरूप नवीन पुद्गलकर्म का बन्ध करने लगते हैं। इस तरह सत्ता में विद्यमान जो प्रत्यय हैं वे कर्मोंदय के कार्यस्वरूप जीव के रागादि भावों के सद्भाव से ही नवीन बन्ध करते हैं। इससे यह सिद्धान्त प्रतिफलित हुआ कि यदि ज्ञानी जीव के पहले के बँधे हुए द्रव्य प्रत्यय हैं, तो रहें, फिर भी वह निरास्रव ही है क्योंकि कर्मोदय के कार्यभूत रागद्वेषमोहरूप आस्रवभाव के अभाव में द्रव्यप्रत्यय बन्ध के कारण नहीं हैं ।। १७३ । १७४ । १७५ । १७६ ॥ यही भाव कलशा द्वारा प्रकट करते हैं मालिनी छन्द विजहति न हि सत्तां प्रत्ययाः पूर्वबद्धाः समयमनुसरन्तो यद्यपि द्रव्यरूपाः। तदपि सकलरागद्वेषमोहव्युदासा Jain Education International दवतरति न जातु ज्ञानिनः कर्मबन्धः । । ११८ ।। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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