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आस्रवाधिकार
स्वभावकृत न होकर रागादिविभावकृत होता हैं इसलिये उस समय भी स्वभाव की अपेक्षा ज्ञानी निरास्रव ही कहा जाता है ।। १७२।।
आगे इसी अभिप्राय को कलशा द्वारा प्रकट करते हैं
शार्दूलविक्रीडितछन्द
संन्यस्यन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं रागं समग्रं स्वयं
वारंवारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं स्वशक्तिं स्पृशन् ।
उच्छिन्दन् परिवृत्तिमेव सकलां ज्ञानस्य पूर्णो भव
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नात्मा नित्यनिरास्रवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा । । ११६ ।।
अर्थ- जब ज्ञानी आत्मा निजबुद्धिपूर्वक आनेवाले समस्त राग को अपने आप निरन्तर दूर करता है और अबुद्धिपूर्वक आनेवाले राग को भी जीतने के लिये बार-बार अपनी शक्ति का स्पर्श करता है तथा ज्ञान की समस्त विकल्परूप परिणति का उच्छेद करता हुआ पूर्ण होता है अर्थात् दर्शनज्ञानचारित्र की उत्कृष्ट दशा को प्राप्त होता है तब सदा के लिये निरास्स्रव हो जाता है । ११६ ॥
अब आगे की गाथाओं की भूमिका के लिये प्रश्नरूप कलशा कहते हैंसर्वस्यामेव जीवत्यां द्रव्यप्रत्ययसन्ततौ।
कुतो निरास्रवो ज्ञानी नित्यमेवेति चेन्मतिः।।११७।।
अर्थ- अब यहाँ आशंका होती है कि ज्ञानी जीव के जब सम्पूर्ण द्रव्य प्रत्ययों की सन्तति विद्यमान है तब वह नित्य ही निरास्रव कैसे हो सकता है ।। ११७ ।।
आगे इस आशंका का उत्तर कहते हैं
सव्वे पुव्वणिबद्धा दु पच्चया संति सम्मदिट्ठिस्स । saभोगप्पा ओगं बंधते कम्मभावेण ।। १७३ ।। संति दुणिरुवभोज्जा बाला इत्थी जहेव पुरिसस्स । बंधदि ते उभोज्जे तरुणी इत्थी जह णरस्स । १७४।। होदूण णिरुवभोज्जा तह बंधदि जह हवंति उवभोज्जा । सत्तविहा भूदा णाणावरणादिभावेहिं ।। १७५ ।।
एदेण कारणेण दु सम्मादिट्ठी अबंधगो होदि । आसवभावाभावे ण पच्चया बंधगा भणिदा ।। १७६ ।
(चतुष्कम्)
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