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________________ आस्रवाधिकार २०७ आप भिन्न है ही, इस तरह ज्ञानी जीव दोनों प्रकार के आस्रवों से रहित होता हुआ एक ज्ञायक ही रहता है तथा सदा एक ज्ञानमयभाव का ही धारक होता है। ज्ञानी जीव की यह निरास्रवदशा दशमगुणस्थान के बाद तो पूर्णरूप से बनती है और चतुर्थादि गुणस्थानों में अपने-अपने पदानुसार यथा कथंचित् संभवती है।।११५।। अब ज्ञानी निरास्रव कैसे हैं? यह दिखाते हैं चहुविह अणेयभेयं बंधते णाणदंसणगुणेहिं। समये समये जह्या तेण अबंधो त्ति णाणी दु।।१७।। अर्थ- जिस कारण पूर्व में निरूपण किये गये जो मिथ्यात्व, अविरमण, कषाय और योगरूप चार द्रव्यास्रव हैं, वे ज्ञानदर्शन गुणों के द्वारा समय-समय में अनेक भेदों को लिये हुए कर्मों को बाँधते हैं। इसलिये ज्ञानी अबन्ध है, ऐसा कहा गया है। विशेषार्थ-ज्ञानी के पहले से ही आस्रव-भावना का अभिप्राय नहीं है। इसलिये वह निरास्रव ही है। फिर भी उसके द्रव्यप्रत्यय जो प्रत्येक समय अनेक प्रकार के पुद्गलकर्म को बाँधते हैं, उसमें ज्ञानगण का परिणाम ही कारण है। तात्पर्य यह है कि जब द्रव्यप्रत्यय उदय में आते हैं तब वे जीव के ज्ञानदर्शनगुणों को रागादिक अज्ञानभावरूप परिणमा देते हैं, उस समय रागादिक अज्ञानभावरूप परिणत ज्ञानदर्शनगुण बन्ध के कारण होते हैं, वास्तव में रागादिक-अज्ञानभावरूप परिणत ज्ञानदर्शनगुण अज्ञान ही कहलाते हैं। इस तरह पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्यय ही ज्ञानदर्शनगुण को रागादिक अज्ञानभावरूप परिणत करके नवीन कर्मों को बाँधते हैं। इसलिये परमार्थ से ज्ञानी अबन्धक ही है।।१७०।। आगे ज्ञानगुण का परिणाम बन्ध का कारण किस तरह है, यह दिखाते हैं जह्मा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणो वि परिणमदि। अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो ॥१७१।। अर्थ- जिस कारण ज्ञानगुण, जघन्यज्ञानगुण से फिर भी अन्यरूप परिणमता है। इस कारण वह ज्ञानगुण कर्मबन्ध का करनेवाला कहा गया है। १. दर्शनज्ञानगुणौ कथं बन्धकारणभूतौ भवतः? इति चेत्, अयमत्र भाव:- द्रव्यप्रत्यया उदयमागताः सन्तो जीवस्य ज्ञानदर्शनगुणद्वयं रागाद्यज्ञानभावेन परिणमयन्ति। तदा रागाद्यज्ञानभावपरिणतं ज्ञानदर्शनगुणद्वयं बन्धकारणं भवति। वस्तुतस्तु रागाद्यज्ञानभावेन परिणतं ज्ञानदर्शनगुणद्वयं अज्ञानमेव भण्यते। (ता०वृ०) For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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