SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०६ समयसार भावार्थ- आत्मा में जो राग-द्वेष मोहरूप भाव हैं, वे भावास्रव कहलाते हैं और उनके निमित्त से कार्मणवर्गणारूप पुद्गलद्रव्य का जो ज्ञानावरणादिरूप परिणमन होता है, वह द्रव्यास्रव हैं, दशम गुणस्थान के ऊपर जीव का जो भाव होता है, वह रागद्वेषमोह से रहित होता है, उसका वह भाव ज्ञान से रचा जाता है, इसलिये ज्ञायकभाव कहलाता है । यह ज्ञायकभाव सर्व प्रकार के भावास्रवों के अभावस्वरूप है तथा द्रव्यकर्म के आस्रवों के समूह को रोकनेवाला है। ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक योग के निमित्त से एक सातावेदनीय का आस्रव होता है। पर स्थिति और अनुभागबन्ध से रहित होने के कारण उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की गई है ।। ११४ ।। आगे ज्ञानी के द्रव्यास्त्रव का अभाव है, यह दिखाते हैंपुढवीपिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दु पच्चया तस्स । कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सव्वेपि णाणिस्स ।। १६९ ।। अर्थ-उस ज्ञानी जीव के पहले की अज्ञानावस्था में बँधे हुए जो प्रत्यय-कर्म हैं, वे पृथिवी के पिण्ड के समान हैं । ज्ञानी जीव के वे सभी प्रत्यय कार्मणशरीर साथ बँधे हुए हैं, जीव के साथ नहीं । भावार्थ - निश्चय से जो पहले एक अज्ञानभाव के ही द्वारा बँधे हुए मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग नामक द्रव्यास्रव स्वरूप प्रत्यय हैं, वे ज्ञानी जीव के लिये पृथक् द्रव्यस्वरूप, अचेतन पुद्गलद्रव्य के परिणाम होने से पृथिवी के पिण्ड के समान हैं तथा वे सभी प्रत्यय स्वभाव से ही कार्मणशरीर के साथ बँधे हु हैं, जीव के साथ नहीं। अतः ज्ञानी जीव के द्रव्यास्रव का अभाव है, यह स्वभाव से ही सिद्ध है ।। १६९ ।। इसी अभिप्राय को कलशा द्वारा प्रकट करते हैं उपजातिछन्द भावास्रवाभावमयं प्रपन्नो द्रव्यास्रवेभ्यः स्वतः एव भिन्नः । ज्ञानी सदा ज्ञानमयैकभावो निरास्रवो ज्ञायक एक एव ।। ११५ ।। अर्थ - यह ज्ञानी जीव भावास्रव के अभाव को प्राप्त हुआ है। इसलिये द्रव्यास्रवों से स्वयमेव भिन्न है। क्योंकि ज्ञानी सदा एक ज्ञानमय भाव से ही युक्त रहता है। अतः वह निरास्रव है और एक ज्ञायक ही है। भावार्थ- ज्ञानी जीव, रागादिक का अभाव होने से भावास्रव के अभाव को प्राप्त हुआ है और पुद्गलद्रव्य के परिणमनरूप होने के कारण द्रव्यास्रवों से अपने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy