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समयसार
लोह की सूची को हलन चलन आदिरूप कार्य करने के लिये प्रेरित करता है, उसी प्रकार वह अज्ञानमय भाव आत्मा को कर्मबन्ध करने के लिये प्रेरित करता है, अर्थात् वह आत्मा में ऐसी विभावता उत्पन्न कर देता है कि जिसका निमित्त पाकर पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादिभावरूप परिणमन को प्राप्त हो जाता है । परन्तु रागादिक के भेदज्ञान से जो भाव होता है, वह ज्ञायकभाव है, जिस प्रकार चुम्बक पाषाण के असंपर्क में होनेवाला भाव लोहे की सूची को हलन चलन आदि क्रिया से रहित रखता है, उसी प्रकार वह ज्ञायकभाव स्वभाव से ही आत्मा को कर्मबन्ध करने में अनुत्साहरूप रखता है अर्थात् रागादिरूप विभावता के अभाव में आत्मा स्वभावस्थ रहता है, जिससे ज्ञानावरणादि कर्मों का बन्ध नहीं हो पाता है। इससे यह सिद्धान्त प्रतिफलित हुआ कि रागादि से मिला हुआ अज्ञानमय भाव ही कर्म के कतृत्व में प्रेरक होने से बन्ध का करनेवाला है और रागादि से न मिला हुआ ज्ञायकभाव केवल स्वभाव का प्रकट करनेवाला होने के कारण किञ्चिन्मात्र भी बन्ध का करने वाला नहीं है ।। १६७।।
अब आत्मा के रागादिक से असंकीर्ण ज्ञायकभाव का होना संभव है, यह दिखाते हैं
पक्के फलम्हि पडिए जह ण फलं बज्झए पुणो विंटे। जीवस्स कम्मभावे पडिए ण पुणोदयमुवेई । । १६८ ।।
अर्थ-जिस प्रकार पका हुआ फल एक बार डण्ठल से पतित होने पर फिर डण्ठल के साथ बन्ध को प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार जीव का कर्मभाव अर्थात् कर्मोदय से जायमान रागादिभाव एक बार नष्ट होनेपर फिर उदय को प्राप्त नहीं होता।
विशेषार्थ - जिस प्रकार पका हुआ फल डण्ठल से एक बार जुदा होनेपर डण्ठल के साथ फिर सम्बन्ध को प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार कर्मोदय से होनेवाला भाव एक बार जीव के भाव से जुदा होने पर फिर जीवभाव को प्राप्त नहीं होता। इस तरह रागादिक से असंकीर्ण ज्ञानमय भाव संभव है।
अनादि काल से जीव की रागादिरूप परिणति हो रही है । उस परिणति से असंकीर्ण शुद्ध ज्ञायकभावरूप परिणति कभी हुई ही नहीं। इसलिये साधारण जीवों को ऐसा प्रतिभास होता है कि रागादिक से असंकीर्ण शुद्ध ज्ञायकभाव का होना संभव नहीं है, परन्तु ऐसी बात नहीं है। रागादिकरूप जो परिणति है, वह जीव की स्वभाव परिणति नहीं है, किन्तु मिथ्यात्वादिक द्रव्यकर्म के उदय में होनेवाली
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