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________________ आस्रवाधिकार २०३ अब ज्ञानी जीव के उन आस्रवों का अभाव दिखाते हैंणत्थि दु आसव-बंधो सम्मादिट्ठिस्स आसवणिरोहो। संते पुव्वणिबद्धे जाणदि सो ते अबंधंतो ॥१६६।। अर्थ- सम्यग्दृष्टि के आस्रव और बन्ध नहीं हैं, किन्तु आस्रव का निरोध है अर्थात् संवर है और जो पहले के बँधे हुए कर्म सत्ता में विद्यमान हैं, उन्हें वह नवीन बन्ध न करता हुआ जानता है। विशेषार्थ-अज्ञानमय भावों के द्वारा ही अज्ञानमय भाव होते हैं, ज्ञानी जीव के अज्ञानभावों की अनुत्पत्ति है। अतएव उसके अज्ञानमय भावों का निरोध हो जाता है। इसीसे आस्रवभूत रागद्वेषमोहरूप अज्ञानमय भावों का अभाव होने के कारण ज्ञानी जीव के आस्रव का निरोध स्वत: सिद्ध है, अतएव ज्ञानी जीव आस्रव के कारणभूत पुद्गलकर्मों को नहीं बाँधता है, किन्तु नित्य ही अकर्ता होने से नवीन कर्मों को नहीं बाँधता हआ पूर्वबद्ध सदवस्थारूप जो कर्म हैं, उन्हें ज्ञानस्वभाव होने से केवल जानता ही है। यहाँ जो सम्यग्दृष्टि जीव के आस्रव और बन्ध का अभाव बताया है, वह वीतरागसम्यक्त्व की अपेक्षा बताया है। सरागसम्यग्दृष्टि जीव के चतुर्थादि गुणस्थानों में आगमप्रतिपादित पद्धति के अनुसार बन्ध होता ही है, उसका निषेध नहीं है। अथवा चतुर्थादि गुणस्थानों में जो बन्ध होता है, वह मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी का उदय निकल जाने से अनन्त संसार का कारण नहीं होता, अप्रत्याख्यानावरणादि के उदय में जो बन्ध होता है उसकी यहाँ विवक्षा नहीं है।।१६६।। अब रागद्वेषमोहभाव ही आस्रव हैं, ऐसा नियम करते हैंभावो रागादिजुदो जीवेण कदो दुबंधगो भणिदो । रायादिविप्पमुक्को अबंधगो जाणगो णवरि ॥१६७॥ अर्थ- जीव के द्वारा किया हुआ जो रागादियुक्त भाव है वह बन्ध का ही करनेवाला कहा गया है और रागादि से विमुक्त जो ज्ञायकभाव है, वह अबन्धक कहा गया है अर्थात् जहाँ रागादिक से कलुषित आत्मा का परिणाम है, वही बन्ध होता और जहाँ अन्तरंग में रागादिक की मलिनता से रहित ज्ञायकभाव है वहाँ बन्ध नहीं होता है। विशेषार्थ- इस आत्मा में निश्चय से रागद्वेषमोह के संपर्क से जायमान जो भाव हैं वे अज्ञानमय ही हैं। जिस प्रकार चुम्बक पाषाण के संपर्क से उत्पन्न भाव, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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