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________________ २०२ समयसार विशेषार्थ- इस जीव में राग-द्वेष-मोह ही आस्रव हैं तथा उनके होने में स्वपरिणाम ही निमित्त हैं, क्योंकि उन रागद्वेषादि परिणामों में अजडपन है, अतएव वे चिदाभास हैं। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये पुद्गल के परिणाम हैं तथा ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्मों के आस्रव में निमित्त होने से आस्रव कहलाते हैं। उन मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगरूप पुद्गल के परिणामों में जो ज्ञानावरणादिक कर्मों के आस्रवण का निमित्तपन है, उसका भी निमित्तकारण रागद्वेषमोहरूप जीव के अज्ञानमय भाव हैं, इसलिये आस्रवण में निमित्तपने का निमित्त होने से राग-द्वेष-मोह ही परमार्थ से आस्रव हैं और ये भाव अज्ञानी जीव के ही होते हैं, यह बात अपने आप सिद्ध होती है। तात्पर्य यह है कि इस जीव के अनादिकाल से मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगरूप द्रव्यप्रत्यय साथ में लगे हुए हैं। ये द्रव्यप्रत्यय पुद्गलद्रव्य के परिणाम हैं तथा अचेतन हैं। जब इनका विपाककाल आता है तब इनके उदय में ज्ञानावरणादिक पुद्गलकर्मों का आस्रव होता है। इस तरह ज्ञानावरणादिक कर्मों के आस्रव में निमित्त पड़ने से मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगरूप जो पुद्गल के परिणाम हैं वे आस्रव कहलाते हैं। अब यहाँ यह विचार आता है कि यदि मिथ्यात्वादि पुद्गल परिणामों का उदय ही ज्ञानावरणादि कर्मों के आस्रव का कारण है, तो सामान्यतया उनका उदय सदा विद्यमान रहता है, इसलिये सदा ही आस्रव होता रहेगा, तब संसार का अभाव किस तरह होगा? इसपर आचार्य कहते हैं कि उन पगलपरिणामों के विपाककाल में जो जीव के राग-द्वेष-मोहरूप अज्ञानमय भाव होते हैं वे ज्ञानावरणादि कर्मों के आस्रव में निमित्त हैं। इसतरह उदय की अपेक्षा पुद्गल परिणाम ज्ञानावरणादि कर्मों के आस्रव में कारण हैं और उन पुद्गलपरिणामों के निमित्त जीव के राग-द्वेष-मोहरूप अज्ञानमय भाव हैं। फलस्वरूप यह बात सिद्ध हो गई कि परमार्थ से राग-द्वेष-मोह ही आस्रव हैं तथा वे अज्ञानी जीव के ही होते हैं। यहाँ अज्ञानी से तात्पर्य मिथ्यादृष्टि का है। तब क्या सम्यग्दृष्टि के रागादिक नहीं होते? होते हैं, परन्तु सम्यग्दृष्टि का उनमें स्वामित्व नहीं रहता अर्थात् वह उन्हें आत्मा का स्वभाव नहीं मानता।।१६४-१६५।। १. अयमत्र भावार्थ:- द्रव्यप्रत्ययोदये सति शुद्धात्मस्वरूपभावनां त्यक्त्वा यदा रागादिभावेन परिणमति तदा बन्धो भवति, नैवोदयमात्रेण। यदि उदयमात्रेण बन्धो भवति, तदा सर्वदा संसार एव। कस्मादिति चेत्? संसारिणां सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात्। तर्हि कर्मोदयो बन्धकारणं न भवतीति चेत्, तन्न, निर्विकल्पसमाधिभ्रष्टानां मोहसहितकर्मोदयो व्यवहारेण निमित्तं भवति। निश्चयेन पुन: अशुद्धोपादानकारणं स्वकीयरागाद्यज्ञानभाव एव भवति। (ता०वृ०)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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