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४. आसवाधिकार
अब आस्रव का प्रवेश होता है
वास्तव में जीव और पुद्गल भिन्न-भिन्न द्रव्य हैं। अनादिकाल से इनकी विजातीय अवस्थारूप बन्धावस्था हो रही है। इसीसे यह आत्मा नाना योनियों में परिभ्रमण करता हुआ पर का कर्ता बनकर अनन्त संसारी हो रहा है। बन्धावस्था के जनक जिस आस्रव से संसार होता है वह कैसा है, यह दिखाते हैं
द्रुतविलम्बितछन्द अथ महामदनिर्भरमन्थरं समररंगपरागतमास्रवम् ।
अयमुदारगभीरमहोदयो जयति दुर्जयबोधधनुर्धरः।। ११३।। अर्थ-वह आस्रव महामद के अतिशय से भरा हुआ है। अतएव मन्थर चाल चल रहा है तथा समररूपी रंगभूमि में आ पहुँचा है, ऐसे आस्रव को यह दुर्जय बोधरूपी धनर्धर सहज ही जीत लेता है, जो उदार, गम्भीर और महान् उदय से सहित है।।११३।।
अब उस आस्रव का स्वरूप कहते हैंमिच्छत्तं अविरमणं कसाय-जोगा य 'सण्णसण्णा दु। बहुविहभेया जीवे तस्सेव अणण्णपरिणामा ॥१६४।। णाणावरणादीयस्स ते दु कम्मस्स कारणं होति। तेसिं पि होदि जीवो य रागदोसादिभावकरो।।१६५।।
(जुगलम्) अर्थ- मिथ्यात्व, अविरमण, कषाय और योग ये जो चार आस्रव हैं वे भावास्रव और द्रव्यास्रव के भेद से चेतन के भी विकार हैं और अचेतन-पुद्गल के भी। इनमें जो चेतन के विकार हैं, वे जीव में बहुत अवान्तर भेदों को लिये हुए हैं तथा जीव के ही अनन्य परिणाम हैं। वे मिथ्यात्वादिक जीव के अनन्य परिणाम, ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मों के कारण हैं और उन मिथ्यात्वादिक जीव के अनन्य परिणामों का कारण रागद्वेषादि भावों को करनेवाला जीव ही है। १. भावप्रत्ययद्रव्यप्रत्ययरूपेण संज्ञाऽसंज्ञाश्चेतनाचेतनाः। (ता०वृ०)
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