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________________ २०० समयसार मन्दाक्रान्ताछन्द भेदोन्मादंभ्रमरसभरानाटयत्पीतमोहं मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन। हेलोन्मीलत्परमकलया सार्धमारब्धकेलि - ज्ञानज्योतिः कवलिततमः प्रोज्जजृम्भे भरेण।।११२।। अर्थ- जो मोहरूपी मदिरा को पीकर उन्मत्त हुए मनुष्य को भेद के उन्माद से उत्पन्न भ्रमरस के भार से नृत्य करा रहा है ऐसे सभी प्रकार के कर्म को बलपूर्वक जड़सहित उखाड़ कर वह ज्ञानज्योति जोर से प्रकट होती है जो अनायास प्रकट होते हुए केवलज्ञानरूपी परम कला के साथ क्रीड़ा प्रारंभ करती है तथा सब अन्धकार दूर कर देती है। भावार्थ- यह जीव अनादिकाल से मोहरूपी मदिरा को पीकर उसके मद में मत्त हो रहा है तथा उसके फलस्वरूप परपदार्थों में इष्टानिष्टबुद्धि कर रहा है, ऊपर से कर्म-पुण्य-पाप का भेद प्रकट कर तज्जन्य उन्माद से उत्पन्न भ्रमरूपी रस के भार से उसे चतुर्गतिरूप संसार में नचा रहा है, ऐसे समस्त कर्मों को जब यह जीव बलपूर्वक जड़ से उखाड़कर नष्ट कर देता है तब अज्ञानान्धकार को नष्ट करनेवाली वीतराग-विज्ञानतारूपी वह ज्ञानज्योति इसके प्रकट होती है जो अन्तर्मुहूर्त के भीतर अनायास प्रकट होनेवाली केवलज्ञानरूपी परमकला के साथ क्रीड़ा करती है। अर्थात् स्वयं केवलज्ञान रूप हो जाती है।।११२।। इस प्रकार जो कर्म पुण्य और पाप के रूप में दो पात्र बनकर नृत्य कर रहा था, अब वह एक पात्र होकर रंगभूमि से बाहर निकल गया। इस प्रकार श्रीकुन्दकुन्दाचार्य विरचित समयप्राभृत में पुण्य-पाप का वर्णन करनेवाले तृतीयाधिकार का प्रवचन समाप्त हुआ।।३।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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