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________________ पुण्यपापाधिकार १९९ कर्मोदय की बलवत्ता से जीवों की जो कर्म में प्रवृत्ति होती है उससे तो बन्ध ही होता है और स्वभावरूप परिणत जो उनका सम्यग्ज्ञान है वह मोक्ष का कारण है क्योंकि ज्ञान बन्ध का कारण नहीं हो सकता। यही कारण है कि इन गुणस्थानों में गुणश्रेणीनिर्जरा भी होती है और देवायु आदि पुण्य प्रकृतियों का बन्ध भी होता है। इस वास्तविक अन्तर को गौण कर कितने ही लोग शुभ प्रवृत्ति को मोक्ष का कारण कहने लगते हैं और रत्नत्रय को तीर्थकर प्रकृति, आहारकशरीर तथा देवायु आदि पुण्यप्रकृतियों के बन्ध का कारण बताते हैं।।११०।। आगे कर्मनय और ज्ञाननय के एकान्ती संसार-सागर में निमग्न रहते हैं, यह कहते हैं शर्दूलविक्रीडितछन्द मग्ना: कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्ति ये मग्ना: ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः। विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च।।१११।। अर्थ- जो ज्ञान को नहीं जानते हैं तथा केवल कर्मनय के अवलम्बन में तत्पर रहते हैं वे डूबते हैं। इसी प्रकार जो ज्ञाननय के इच्छुक होकर भी धर्माचरण के विषय में अत्यन्त स्वच्छन्द और मन्दोद्यम रहते हैं वे भी डूबते हैं। किन्तु जो निरन्तर स्वयं ज्ञानरूप होते हुए न तो कर्म करते हैं और न कभी प्रमाद के वशीभूत होते हैं वे ही समस्त संसार के ऊपर तैरते हैं अर्थात् संसार से पार होते हैं। ___ भावार्थ- यहाँ कर्मनय और ज्ञाननय के एकान्तियों का निरूपण करते हुए अनेकान्त से दोनों नयों का पालन करनेवाले पुरुषों का वर्णन किया गया है। जो मनुष्य संसार-सागर के संतरण का मूलभूत उपाय जो ज्ञान हैं उसे तो समझते नहीं हैं केवल बाह्य क्रियाकाण्ड के आडम्बर में निमग्न रहते हैं वे संसार-सागर में ही डूबते हैं और जो ज्ञाननय को तो चाहते हैं परन्तु बाह्य शुभाचरण में स्वच्छन्द तथा अत्यन्त मन्दोत्साह हैं वे भी संसार-सागर में ही डूबते हैं। और जो न तो कर्म करते हैं और न कभी प्रमाद के वशीभूत हो शुभाचरण से च्युत होते हैं वे स्वयं ज्ञानरूप होते हुए विश्व के ऊपर तैरते हैं।।१११।। आगे सब प्रकार के कर्मों को नष्ट करने पर ज्ञानज्योति प्रकट होती है, यह कहते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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