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समयसार
चारित्त-पडिणिबद्धं कसायं जिणवरेहिं परिकहियं । तस्सोदयेण जीवो अचरित्तो होदि णायव्वो।।१६३।।
(त्रिकलम्) अर्थ- सम्यक्त्व को रोकनेवाला मिथ्यात्वकर्म है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है, उस मिथ्यात्व के उदय से जीव मिथ्यादृष्टि होता है, ऐसा जानना चाहिये।
ज्ञान को रोकनेवाला अज्ञान है, ऐसा श्री जिनवर के द्वारा कहा गया है, उस अज्ञान के उदय से यह जीव अज्ञानी नाम पाता है, यह जानना चाहिये।
चारित्र को घातनेवाला कषाय है, ऐसा भगवान् का आदेश है, उस कषाय के उदय से यह जीव अचारित्र होता है, यह जानना चाहिये।
विशेषार्थ- आत्मा का जो सम्यग्दर्शन है वह मोक्ष का कारण है तथा आत्मा का स्वभावभूत है उसे रोकनेवाला मिथ्यात्व है वह स्वयं कर्म ही है। जब उसका उदयकाल आता है तब ज्ञान के मिथ्यादृष्टिपन रहता है। इसी तरह आत्मा का जो ज्ञान है वह मोक्ष का कारण है तथा आत्मा का स्वभाव है, उसका प्रतिबन्धक अज्ञान है वह स्वयं कर्म है, उसके उदय से ज्ञान के अज्ञानपन होता है। इसी तरह आत्मा का जो चारित्रगुण है, वह मोक्ष का कारण है तथा आत्मा का स्वभाव है, उसको रोकनेवाला कषाय है, वह कषाय स्वयं कर्म है, उसके उदय से ज्ञान का अचारित्र भाव होता है। इसीलिये मोक्ष के कारणों का तिरोधायक-आच्छादक होने से कर्म का प्रतिषेध किया गया है।
आत्मा अनाद्यनन्त चैतन्यगुण विशिष्ट एक द्रव्य है। परन्तु अनादिकाल से कर्मों के साथ एकमेव जैसा हो रहा है। इसमें जिस तरह चेतना असाधारण गुण है उसी तरह सम्यक्त्व, चारित्र, सुख और वीर्य भी असाधारण गुण हैं। किन्तु उन गुणों के विकास को रोकने वाले ज्ञानावरणादि आठ कर्म अनादि से ही इसके साथ लग रहे हैं। उन कर्मों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म घातिया हैं जो कि आत्मा के असाधारण अनुजीवी गुणों को घातते हैं। अधातिया कर्म आत्मगुण घातक नहीं हैं, केवल उनके अभाव में प्रतिजीवी गुणों का ही उदय होता है। घातियाकर्मों में ज्ञानावरण और दर्शनावरण चेतनागुण के विकास में बाधक हैं अर्थात् जब ज्ञानावरण कर्म का उदय होता है तब आत्मा का ज्ञान नहीं प्रकट होता है और दर्शनावरण के उदय में दर्शन नहीं होता, अन्तराय के उदय में वीर्य (शक्ति का) विकास नहीं होता है। इनके क्षयोपशम में आंशिक ज्ञान, दर्शन तथा वीर्य प्रकट होते हैं, क्षय में पूर्णरूप से ज्ञानादिक गुणों का विकास हो जाता है।
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