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________________ पुण्यपापाधिकार १९७ मोहनीयकर्म की तरह इनका सर्वथा उदय नहीं रहता, अन्यथा आत्मा के ज्ञानगुण का सर्वथा अभाव होने से उसके अस्तित्त्व का ही लोप हो जाता, सो हो नहीं सकता। मोहनीयकर्म आत्मा के सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र को घातता है। यहाँ पर घात का यह आशय है कि गुण के विकास को रोकता तो नहीं है, किन्तु उसका विरुद्ध परिणमन करा देता है। जैसे कामलारोगी देखता तो है, परन्तु श्वेतशङ्ख को पीतरूप देखता है। अत: परमार्थ से देखा जावे तो यही घात आत्मा का अहित करनेवाला है। इन्हीं ज्ञानावरणादि कर्मों में पापकर्म और पुण्यकर्म का विभाग है, घातिया कर्मों की जितनी प्रकृतियाँ है वे सब पापरूप ही हैं। परन्तु अघातिया कर्मों में कुछ पापप्रकृतियाँ हैं और कुछ पुण्य प्रकृतियाँ हैं। कषाय के मन्दोदय में पुण्यप्रकृतियों का बन्ध होता है और कषाय के तीव्रोदय में पापप्रकृतियों का बन्ध होता है। पुण्य प्रकृतियों के विपाक काल में सांसारिक सुख की प्राप्ति होती है और पाप प्रकृतियों के उदयकाल में सांसारिक दुःख की ही प्राप्ति होती है। कषाय के मन्दोदय में होनेवाला जो शुभाचरण है वह भी पुण्यकर्म के बन्ध में साधक होने से पुण्यकर्म कहलाता है और कषाय के तीव्रोदय में होने वाला जो अशुभाचरण है वह भी पापकर्म के बन्ध में साधक होने से पापकर्म कहलाता है। इनमें पापकर्म तो मोक्ष का बाधक है ही, परन्त पुण्यकर्म भी मोक्ष का बाधक है। इसलिये मोक्षार्थी मनुष्य को इन दोनों प्रकार के कर्मों का त्याग करना चाहिये।।१६१-१६३। यही कलशा में कहते हैं शार्दूलविक्रीडितछन्द संन्यस्तव्यमिदं समस्तमपि तत्कर्मैव मोक्षार्थिना संन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य च। सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भव त्रैष्कर्म्यप्रतिबुद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति।।१०९।। अर्थ- 'मोक्ष के अभिलाषी मनुष्य के द्वारा ये सभी कर्म छोड़ देने के योग्य हैं' इस आदेश से जब सब कर्म छोड़ दिये, तब पुण्य और पाप की क्या चर्चा रह गई? पुण्य और पाप तो कर्म की विशिष्ट अवस्थाएँ हैं। जब सामान्यरूप से कर्म का त्याग हो गया तब पुण्य-पाप का त्याग तो उसी त्याग में अनायास गर्भित हो गया। इस प्रकार पुण्य और पाप दोनों प्रकार के कर्मों के छूट जाने से जब इस जीव की निष्कर्मा अवस्था हो जाती है तब इसके सम्यक्त्वादि गुणों का निज स्वभावरूप परिणमन होने लगता है और तभी उससे सम्बन्ध रखनेवाला शक्तिशाली ज्ञान मोक्ष का हेतु होता हुआ स्वयं दौड़कर आता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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