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________________ पुण्यपापाधिकार १९३ वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि। द्रव्यान्तरस्वभावत्वान्मोक्षहेतुर्न कर्म तत्।।१०७।। अर्थ- कर्मस्वभावरूप होना ज्ञान का होना नहीं है क्योंकि वह द्रव्यान्तर का स्वभाव है अत: शुभाशुभकर्म मोक्ष का हेतु नहीं है।।१०७।। मोक्षहेतुतिरोधानात् बन्धत्वात्स्वयमेव च। मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वात्तनिषिद्ध्यते।।१०८।। अर्थ- वह कर्म, मोक्ष का हेतु जो ज्ञान है, उसका आच्छादन करने वाला है तथा स्वयं बन्ध रूप है और मोक्ष के हेतु-ज्ञान का आच्छादन करनेवाले पुद्गलद्रव्यरूप उसका परिणमन होता है। अत: मोक्षमार्ग में उसका निषेध किया गया है। यहाँ पर व्रत तपश्चरण आदि शुभकर्म मोक्ष के हेतु नहीं हैं, यह कहा गया है। इसका यह तात्पर्यं नहीं लेना चाहिये कि मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करने वाला मुनि इन सब कार्यों को करता नहीं है, करता है। किन्तु मात्र इन्हें मोक्ष का कारण नहीं मानता, उसकी श्रद्धा में ज्ञान की ज्ञानरूप परिणति हो जाना ही मोक्ष का कारण है। इस अन्तरङ्ग कारण के रहते हुए ज्ञानी जीव के अपने पदानुसार जो मन, वचन, काय के शुभ व्यापार होते हैं उनके निषेध का तात्पर्य नहीं है। अब कर्म मोक्ष के हेतु का तिरोधान करनेवाला है, यह दृष्टान्त द्वारा सिद्ध करते हैं वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो। मिच्छत्तमलोच्छण्णं तह सम्मत्तं खु णायव्वं ।।१५७।। वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो। अण्णाणमलोच्छण्णं तह णाणं होदि णायव्वं ।।१५८।। वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो। कसायमलोच्छण्णं तह चारित्तं पि णादव्वं ।।१५९।। (त्रिकलम्) अर्थ- जिस प्रकार वस्त्र की श्वेतता (शक्लता) मल के मेलन होने पर नष्ट हो जाती है उसी प्रकार मिथ्यात्वमल से व्याप्त होने पर सम्यक्त्व भी नष्ट हो जाता है अर्थात् आच्छादित हो जाता है, ऐसा निश्चय से जानना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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