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समयसार
आगे मोक्ष का परमार्थ कारण जो ज्ञान है उससे अन्य कर्म के मोक्षमार्गपन का प्रतिषेध करते हैं
मोत्तूण णिच्चयटुं ववहारेण विदुसा पवटॅति । परमट्ठमस्सिदाणं दु जदीण कम्मक्खओ विहियो ।।१५६।।
अर्थ- मात्र द्रव्यश्रुत के पाठी निश्चयनय के विषय का त्यागकर व्यवहार से प्रवृत्ति करते हैं, परन्तु कर्मों का क्षय परमार्थ का आश्रय करने वाले यति महाराजों के कहा गया है।
विशेषार्थ- मोक्ष के परमार्थ कारण से भिन्न जो व्रत, तप आदि शुभ कर्म हैं, वही मोक्ष का कारण हैं, ऐसा किन्हीं का पक्ष है। परन्तु यह सब निषिद्ध है क्योंकि यह सब द्रव्यान्तर का स्वभाव है अर्थात् पुद्गलद्रव्य का परिणमन है, इस स्वभावरूप ज्ञान का परिणमन नहीं होता। मोक्ष का जो परमार्थ कारण है वह एकमात्र जीवद्रव्य का स्वभाव है। उस स्वभाव से ही ज्ञान का परिणमन होता है।।१५६।।
मात्र द्रव्यश्रुत के ज्ञाता विद्वान् लोग निश्चयनय के पक्ष को छोड़कर केवल व्यवहारनय से प्रवृत्ति करते हैं अर्थात् व्यवहार में जो शुभाचरण बताया गया है उसका पालन करते हैं और उसके फलस्वरूप मोक्ष की इच्छा रखते हैं। परन्तु उससे कर्मों का क्षय नहीं होता, उससे तो कषाय की मन्दता में होनेवाला देवायु आदि पुण्यप्रकृतियों का बन्ध ही होता है। कर्मों का क्षय उन्हीं मुनियों के होता है जो परमार्थ मोक्षमार्ग का आश्रय प्राप्त कर चुके हैं। यही अभिप्राय कलशा में प्रकट करते हैं
वृत्तं ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं सदा।
एकद्रव्यस्वभावत्वान्मोक्षहेतुस्तदेव हि।।१०६।। अर्थ- सदा ज्ञानस्वभाव से वर्तना ही ज्ञान का होना है और एक आत्मद्रव्य का स्वभाव होने से वह ज्ञान ही मोक्ष हेतु है।
भावार्थ- मोक्ष आत्मा का होता है, इसलिये आत्मा का स्वभाव ही मोक्ष का कारण हो सकता है और ज्ञान आत्मा का स्वभाव है इसलिये वही मोक्ष का कारण है। इसके विपरीत मन, वचन, काय के व्यापार रूप जो शुभकर्म है वह पुद्गलद्रव्य का स्वभाव होने से मोक्ष का कारण नहीं हो सकता।।१०६।।। १. इस गाथा के पूर्वाध का अर्थ जयसेन स्वामी ने इस प्रकार किया है कि ज्ञानी जीव
परमार्थ को छोड़कर व्यवहार में प्रवृत्ति नहीं करते। इन्होंने ‘ववहारे' का सप्तम्यन्त मानकर 'ण' को अलग किया है।
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