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________________ पुण्यपापाधिकार १९१ शुभोपयोगरूप परिणति है उसे पुण्य कहते हैं, ऐसा पुण्य शुभकर्म के बन्ध का कारण है, कर्मक्षय रूप मोक्ष का कारण नहीं है, परन्तु अज्ञानी जीव इस अन्तर को नहीं समझ पाता है। यहाँ पुण्यरूप आचरण का निषेध नहीं है, किन्तु पुण्याचरण को मोक्ष का मार्ग मानने का निषेध किया है। ज्ञानी जीव अपने पद के अनुरूप पुण्याचरण करता है और उसके फलस्वरूप प्राप्त हुए इन्द्र, चक्रवर्ती आदि के वैभव का उपभोग भी करता है, परन्तु श्रद्धा में यही भाव रखता है कि हमारा यह पुण्याचरण मोक्ष का साक्षात् कारण नहीं है तथा उसके फलस्वरूप जो वैभव प्राप्त हुआ है वह मेरा स्वपद नहीं है। यहाँ इतनी बात ध्यान में रखने के योग्य है कि जिस प्रकार पापाचरण बुद्धिपूर्वक छोड़ा जाता है उस प्रकार बुद्धिपूर्वक पुण्याचरण नहीं छोड़ा जाता वह तो शुद्धोपयोग की भूमिका में प्रविष्ट होने पर स्वयं छूट जाता है।।१५४।। अब ऐसे जीवों को मोक्ष का परमार्थ वास्तविक कारण दिखाते हैंजीवादीसद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं। रायादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो।।१५५।। अर्थ-जीवादिक पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, उन्हीं का जानना ज्ञान है और रागादिक का त्याग करना चारित्र है, और यही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है। विशेषार्थ-निश्चय से मोक्ष का कारण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है। उनमें जीवादिपदार्थ श्रद्धान स्वभावरूप ज्ञान का होना सम्यग्दर्शन है। जीवादिज्ञानस्वभाव से ज्ञान का होना सम्यग्ज्ञान है और रागादि परिहरणस्वभाव से ज्ञान का होना सम्यकचारित्र है। इस तरह सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तीनों ही एक ज्ञान के परिणमन सिद्ध हुए, इसलिये यही सिद्धान्त निर्णीत हुआ कि ज्ञान ही परमार्थ से मोक्ष का कारण है। यही श्रीविद्यानन्द ने श्लोकवार्तिक में कहा है मिथ्याभिप्रायनिर्मुक्तिर्ज्ञानस्येष्टं हि दर्शनम्। ज्ञानत्वं चार्थविज्ञप्तिश्चर्यात्वं कर्महन्तृता।। अर्थात् ज्ञान का मिथ्याभिप्राय छूट जाना सम्यग्दर्शन है, पदार्थ का जानना ज्ञान है और कर्मों को नष्ट करने की सामर्थ्य होना चारित्र है। यहाँ पर ज्ञानगुण की प्रधानता से कथन है, इसलिये सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को ज्ञान की ही परिणति सिद्ध कर एक ज्ञान को ही मोक्ष का कारण कहा है। ज्ञानगुण का स्वपरज्ञायकपन ही उसकी प्रधानता का कारण है।।१५५।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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