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________________ १८८ समयसार कहलाता है क्योंकि 'समय' शब्द में जो 'सम्' उपसर्ग है उसका अर्थ एक ही काल में प्रवर्तना है और अयधातु है उसका अर्थ ज्ञान और गमन दोनों हैं, इस तरह जो एक काल में जानता भी है और परिणमनशील भी है अर्थात् जो युगपत् एकीभाव होकर ज्ञानक्रिया और परिणमनक्रिया कर रहा है वह समय कहलाता है । वह आत्मा सम्पूर्ण नयपक्षों से असंकीर्ण केवल एकज्ञानरूप हो रहा है इसलिये शुद्ध कहलाता है। केवल चैतन्यमात्र वस्तु होने से केवली कहा जाता है। केवल मननभावमात्र होने से मुनि कहलाता है । स्वयमेव ज्ञानपन कर ज्ञानी कहा जाता है । स्वकीय ज्ञान के भावमात्र से स्वभाव कहलाता है और सत् अर्थात् चित् के भावमात्र होने से सद्भाव भी कहा जाता है। इस प्रकार शब्दों में भेद होने पर भी वस्तु में भेद नहीं है। ऐसे ज्ञानस्वभाव में जो मुनि स्थित हैं अर्थात् रागादि विकारी भावों से रहित हैं वे अवश्य ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं तथा जो इसके विपरीत शुभ-अशुभ भावों में उलझते हैं वे यथायोग्य संसार के ही पात्र होते हैं । । १५१।। आगे परमार्थ में स्थित हुए बिना तप और व्रत बालतप और बालव्रत है, यह कहते हैं परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेई । तं सव्वं बालतवं बालवदं विंति सव्वण्हू ।। १५२ ।। अर्थ- जो आत्मा ज्ञानस्वरूप परमार्थ में तो निश्चल नहीं है किन्तु तप करता है और व्रत को धारण करता है सर्वज्ञ भगवान् उन सर्व प्रकार के तप और व्रत को बालतप और बालव्रत कहते हैं । विशेषार्थ - श्रीभगवान् ने ज्ञान ही को मोक्ष का कारण कहा है क्योंकि परमार्थभूत ज्ञान से रिक्त मनुष्य के अज्ञान द्वारा किये हुए तप और व्रत बन्ध के कारण होने से बालतप और बालव्रत कहे जाते हैं तथा इसीसे मोक्षमार्ग में उनका निषेध है और ज्ञान ही को मोक्ष का हेतु कहा गया है । । १५२ ।। अब ज्ञान मोक्ष का हेतु है और अज्ञान बन्ध का कारण है, ऐसा नियम करते हैं वदणियमाणि धरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता । परमट्ठबाहिरा जे णिव्वाणं ते ण विंदंति । । १५३ । अर्थ- जो व्रत और नियमों को धारण करते हैं तथा शील और तप को करते हैं किन्तु परमार्थभूत ज्ञानस्वरूप आत्मा से बाह्य हैं अर्थात् उसके दृढ़ श्रद्धान और ज्ञान से शून्य हैं वे निर्वाण को नहीं पाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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