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________________ पुण्यपापाधिकार १८९ विशेषार्थ-ज्ञान ही मोक्ष का कारण है क्योंकि उसके अभाव में स्वयं अज्ञानस्वरूप अज्ञानी जीवों के अन्तरङ्ग में व्रत, नियम शील, तप आदिक शुभकर्मों का सद्भाव होने पर भी मोक्ष का अभाव रहता है। इसी तरह अज्ञान ही बन्ध का कारण है क्योंकि उसके अभाव में स्वयं ज्ञानभूत ज्ञानी जीवों के बाह्य में व्रत, नियम, शील, तप आदिक शुभकर्मों का असद्भाव होने पर भी मोक्ष का सद्भाव है। ___यहाँ यह जो कहा है कि अज्ञान का अभाव होनेपर स्वयं ज्ञानभूत ज्ञानी जीवों के बाह्य व्रत, नियम, शील, तप आदिक शुभकर्मों के अभाव में भी मोक्ष होता है, उसका यह अर्थ ग्राह्य नहीं है कि ये मोक्षमार्ग में अनुपयोगी हैं। यहाँ आचार्य का तात्पर्य यह है कि ये व्रत-नियमादिक शुभकार्य आत्मज्ञान के रहते हुए ही मोक्ष की परम्परा से कारण होते हैं उसके बिना वे बन्ध के कारण हैं। जिसके हृदय से अज्ञान निकल जाता है, व्रत-नियमादिरूप प्रवृत्ति तो उसकी स्वतः हो जाती है। जिस प्रकार चावल के भीतर का तुष निकल जानेपर बाह्य तुष निकल गया, यह बात अनायास सिद्ध है, उसी प्रकार अन्तरङ्ग का रागभाव नष्ट हो जानेपर बहिरङ्ग विषयों का व्यापार स्वयमेव नष्ट हो जाता है, यह अनायास सिद्ध है। परन्तु बाह्य तुष निकल जानेपर अन्तरङ्ग का तुष निकल ही जावे, यह व्याप्ति नहीं, निकल भी जावे और न भी निकले। उसी प्रकार केवल बाह्य शुभाचरण होने पर अन्तरङ्ग का अज्ञान निवृत्त हो ही जावे, यह व्याप्ति नहीं, निवृत्त हो भी जावे और न भी होवे।।१५३।। अब ज्ञानस्वरूप आत्मा ही मोक्ष का कारण है और उससे भिन्न परिणति बन्ध का कारण है, यह कलशा द्वारा प्रकट करते हैं शिखरिणीछन्द यदेतज्ज्ञानात्मा ध्रुवमचलमाभाति भवनं शिवस्यायं हेतुः स्वयमपि यतस्तच्छिव इति। अतोऽन्यद् बन्धस्य स्वयमपि यतो बन्ध इति तत् ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिर्हि विहितम्।।१०५।। अर्थ- जो यह ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्रुव है सो जब अपने स्वरूप में निश्चल हुआ शोभायमान होता है तभी यह मोक्ष का हेतु है क्योंकि वह ज्ञान स्वयं शिवस्वरूप है। तथा इसके सिवाय अन्य जो रागादिक भाव हैं वे सब बन्ध के जनक हैं क्योंकि १. न हि चित्तस्थे रागभावे विनष्टे सति बहिरङ्गविषयव्यापारो दृश्यते। तन्दुलस्याभ्यन्तरे तुषे गते सति बहिरंगतुष इव। (ता०वृ०) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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