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पुण्यपापाधिकार
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अर्थ- यहाँ पर शंकाकार का कहना है कि जब सभी प्रकार के कर्म का, चाहे वह शुभ हो या अशुभ हो, निषेध बताया है तब निष्कर्म अवस्था की ही प्रवृत्ति होगी और ऐसा होने पर मुनि अशरण हो जावेंगे, क्योंकि उन्हें करने योग्य कोई कार्य अवशिष्ट नहीं रहा? इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि नहीं भाई मुनि अशरण नहीं होते, क्योंकि उस समय जो ज्ञान में ही ज्ञान का आचरण होता है, वही मुनियों के शरण है, उसमें लीन हुए मुनि स्वयं ही परम अमृत को प्राप्त होते हैं- परमह्लाद को प्राप्त होते हैं अथवा उत्कृष्ठ मोक्ष को प्राप्त होते हैं।
भावार्थ- शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का निषेध किये जाने पर निष्कर्मा मुनि क्या करेंगे? वे तो अशरण हो जावेंगे? ऐसी आशंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि उस समय कषाय की अत्यन्त मन्दता अथवा उसका सर्वथा अभाव हो जानेपर मुनियों का ज्ञान ज्ञान में ही लीन हो जाता है अर्थात् ज्ञान में चंचलता उत्पन्न करने वाले जो क्रोधादिक भाव थे उनका अभाव हो जाने से ज्ञान अपने स्वरूप में स्थिर हो जाता है। ऐसा ज्ञान ही मुनियों के लिये शरणभूत है। इसमें लीन रहने वाले मुनि जिस अकथनीय आनन्द को प्राप्त होते हैं वह इन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र वा अहमिन्द्र को भी दुर्लभ होता है।।१०४।।
अनन्तर ज्ञानस्वभाव में स्थित मुनि मोक्ष को प्राप्त करते हैं, यह सिद्ध करते हैं
परमट्ठो खलु समओ सुद्धो जो केवली मुणी णाणी। तरि ट्ठिदा सहावे मुणिणो पावंति णिव्वाणं।।१५१।।
अर्थ- निश्चय से जो परमार्थ है, समय है, शुद्ध है, केवली है, मुनि है और ज्ञानी है अर्थात् इन शब्दों के द्वारा जिसका कथन होता है उस स्वभाव में स्थित मुनि निर्वाण को प्राप्त होते हैं।
विशेषार्थ- आत्मा का स्वभाव ज्ञान है और ज्ञान ही मोक्ष का कारण है क्योंकि ज्ञान शुभ अशुभ कर्मों के बन्ध का कारण नहीं है। अत: वहीं मोक्ष का कारण हो सकता है। जो बन्ध का कारण है वह मोक्ष का कारण नहीं हो सकता। वह ज्ञान कर्म, नोकर्म आदि समस्त विजातीय द्रव्यों से पृथक् चैतन्यजातिमात्र होने से परमार्थ अर्थात् आत्मा कहलाता है। यहाँ गुण-गुणी में अभेददृष्टि को अङ्गीकार कर, गुण जो ज्ञान है उसे ही गुणी, परमार्थ या आत्मा कहा गया है। वह आत्मा समय भी १. सम्यगयते गच्छति शुद्धगुणपर्यायान् परिणमतीति समयः, अथवा सम्यगयः
संशयादिरहितो बोधो ज्ञानं यस्य भवति स समयः, अथवा समित्येकत्वेन परमसमरसीभावेन स्वकीयशुद्धस्वरूपे अयनं गमनं परिणमनं समयः। (ता०वृ०)
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