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समयसार
१८६ कर्मप्रकृति को, चाहे वह शुभरूप हो और चाहे अशुभरूप हो, कुत्सित स्वभाववाली जानकर उसके साथ राग और संसर्ग दोनों ही त्याग देता है।।१४८-१४९।।
___ अब दोनों कर्म बन्ध के कारण हैं तथा प्रतिषेध करने योग्य हैं, यह आगम के द्वारा सिद्ध करते हैं
रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपण्णो।
एसो जिणोवदेसो तह्या कम्मेसु मा रज्ज।।१५०।।
अर्थ- रागी जीव कर्मों को बाँधता है और विराग को प्राप्त हुआ जीव कर्मों को छोड़ता है, यह श्री जिनेश्वर का उपदेश है, इससे कर्मों में राग नहीं करो।
विशेषार्थ-निश्चय से जो रागी है वह अवश्य ही कर्म को बाँधता है और जो विरक्त है वही कर्मों से छूटता है, यह आगम का उपदेश है। यह आगमोपदेश सामान्यरूप से रागीपन का निमित्त होने से शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के कर्म को बन्ध का हेतु सिद्ध करता है तथा दोनों प्रकार के कर्मों का प्रतिषेध करता है। यहाँ राग को बन्ध का कारण बताया गया है। जो राग है वही कषाय है। जब कषाय का मन्दोदय होता है तब शुभकर्म का बन्ध होता है और जब कषाय का तीव्रोदय होता है तब अशुभकर्म का बन्ध होता है। इस तरह शुभ व दोनों कर्म, बन्ध के कारण होने से निषेध करने योग्य हैं।।१५०।। श्री अमृतचन्द्र स्वामी इसी भाव को कलशा में प्रकट करते हैं
स्वागताछन्द कर्म सर्वमपि सर्वविदो यद् बन्धसाधनमुशन्त्यविशेषात्।
तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिद्धं ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः ।।१०३।।
अर्थ- सर्वज्ञ भगवान् सभी कर्मों को अविशेषरूप से बन्ध का कारण कहते हैं, इससे सभी कर्मों का निषेध किया गया है और एक ज्ञान को ही मोक्ष का कारण कहा गया है।।१०३।।
शिखरिणीछन्द निषिद्धे सर्वस्मिन् सुकृतदुरिते कर्मणि किल
प्रवृत्ते नैष्कम्ये न खलु मुनयः सन्त्यशरणाः। तदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणम्
स्वयं विन्दन्त्येते परमममृतं तत्र निरताः।।१०४।।
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