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________________ पुण्यपापाधिक १८३ ब्राह्मणी ने किया था वह अपने आपको ब्राह्मण मानकर मदिरा को दूर से ही छोड़ता है अर्थात् उसका स्पर्श भी नहीं करता और दूसरा पुत्र 'मैं तो शूद्र हूँ' ऐसा मानकर उस मदिरा से ही नित्य स्नान करता है अर्थात् उसके सेवन में उसे किसी प्रकार का संकोच नहीं है। परमार्थदृष्टि से देखा जावे तो दोनों पुत्र शूद्रा के उदर से एक साथ निकले हैं, इसलिये साक्षात् शूद्र ही हैं, जातिभेद के भ्रम से वे उस प्रकार का आचरण करते हैं। भावार्थ- विभावपरिणति से जो कर्म आता है वह दो प्रकार का दृष्टिगोचर होने लगता है—एक पुण्यरूप और दूसरा पापरूप। पुण्यकर्म प्रशस्त है और पाप कर्म अप्रशस्त है। एक सांसारिक सुख का कारण है और दूसरा सांसारिक दुःख का कारण है। परन्तु परमार्थ दृष्टि से विचार करने पर दोनों विभावपरिणति के कार्य होने से संसारबन्धन के ही कारण हैं । इसीलिये विवेकी जीव दोनों को एक समझता है ।। १०१ ।। आगे शुभाशुभकर्म के स्वभाव का वर्णन करते हैं कम्मसुहं कुसीलं चावि जाणह सुसीलं । किह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि ।। १४५।। अर्थ- कितने ही लोग कहते हैं कि अशुभकर्म को कुत्सित स्वभाववाला और शुभकर्म को उत्तम स्वभाववाला जानों । परन्तु जो प्राणी को संसार में प्रविष्ट करता है वह सुशील कैसे हो सकता है ? ―――― विशेषार्थ - कितने ही महानुभावों का कहना है कि यद्यपि कर्म एक है तो भी शुभ और अशुभ के भेद से वह दो प्रकार का है क्योंकि दोनों में कारणभेद, स्वभावभेद, अनुभवभेद और आश्रयभेद देखा जाता है । जो इस प्रकार है- • शुभकर्म की उत्पत्ति में जीव के शुभ परिणाम निमित्त हैं और अशुभकर्म में जीव के अशुभ परिणाम निमित्त हैं। इस तरह दोनों में कारणभेद है। शुभकर्म शुभ पुद्गलपरिणाममय है और अशुभकर्म अशुभपुद्गलपरिणाममय है । इस तरह दोनों में स्वभाव भेद है। शुभकर्म का पाक शुभरूप होता है— सुखदायक होता है और अशुभकर्म का फल अशुभरूप होता है— दुःखदायक होता है । इस तरह दोनों में अनुभवभेद है और शुभकर्म मोक्षमार्ग के आश्रित है तथा अशुभकर्म बन्धमार्ग के आश्रित है। इसलिये दोनों में आश्रयभेद है। परन्तु उन महानुभावों का यह पक्ष प्रतिपक्ष से सहित है— विरोधयुक्त है । यही दिखाते हैं— जीवपरिणाम चाहे शुभ हो, चाहे अशुभ हो, दोनों ही केवल For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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