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________________ ३. पुण्यपापाधिकार अब एक ही कर्म दो पात्र बनकर पुण्य और पाप के रूप से प्रवेश करते हैं द्रुतविलम्बितछन्द तदथ कर्म शुभाशुभभेदतो द्वितयतां गतमैक्यमुपानयन्। ग्लपितनिर्भरमोहरजः अयं स्वयमुदेत्यवबोधसुधाप्लव:।। १०० ।। अर्थ- तदनन्तर कर्तृ-कर्म का सम्यक् प्रकार से निर्णय होने पर जो शुभ-अशुभ के भेद से द्विरूपता को प्राप्त हुए कर्म को एकत्व प्राप्त करा रहा है तथा जिसने बहुत भारी मोहरूपी धूलि को नष्ट कर दिया है, ऐसा सम्यग्ज्ञानरूपी अमृत का प्रवाह अपने आप प्रकट होता है। भावार्थ- कर्तृकर्माधिकार में निरूपित पद्धति के अनुसार जब इस जीव को सम्यक प्रकार से कर्ता और कर्म का निर्णय हो चुकता है तब इसके हृदय में सम्यग्ज्ञानरूपी अमृत का झरना स्वयमेव फूट पड़ता है। वह अमृत का झरना शुभाशुभ के भेद से द्विरूपता को प्राप्त हुए कर्म को एकत्व प्राप्त कराता है अर्थात् बतलाता है कि कर्म दो नहीं हैं किन्तु एक ही है तथा मोहरूपी जो बहुत भारी धूलि उठ रही थी उसे शान्त कर देता है।।१००।।। आगे दृष्टान्त के द्वारा पुण्य और पाप की एकरूपता सिद्ध करते हैं मन्दाक्रान्ताछन्द एको दूरात्त्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमाना दन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव। द्वावप्येतौ युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकायाः शूद्रौ साक्षादथ च चरतो जातिभेदभ्रमेण।।१०१।। अर्थ- एक शूद्रा के उदर से एकसाथ दो पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें से एक पुत्र का पोषण ब्राह्मणी ने किया और एक पुत्र शूद्रा के घर ही पुष्ट हुआ। जिसका पोषण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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