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कर्तृ-कर्माधिकार
१८१ अर्थ- जिसके अन्तस्तल में चैतन्यशक्तियों के समूह के भार से देदीप्यमान, अविनाशी, उत्कृष्ट तथा अत्यन्त गम्भीर यह ज्ञानज्योति प्रकट हो चुकी है कि जिसके प्रभाव से कर्ता कर्ता नहीं रहता, कर्म कर्म नहीं रहता, ज्ञान ज्ञान ही हो जाता है और पुद्गल पुद्गल ही हो जाता है।
भावार्थ- आचार्य कहते हैं कि मोह भले ही परदा के अन्दर अपना नाट्य दिखलाता रहे तो भी हमारे हृदय में वह उत्कृष्ट ज्ञानज्योति प्रकट हो गई है जो अतिशय देदीप्यमान है, अविनाशी है तथा अत्यन्त गम्भीर है। यह ज्ञानज्योति कहीं बाहर से नहीं आई है, किन्तु हमारी ही चैतन्यशक्तियों के भार से अपने आप प्रकट हुई है। इस ज्ञानज्योति के प्रकाश में कर्ता कर्ता नहीं रह गया है और कर्म कर्म नहीं रह गया है अर्थात् कर्तृकर्म का भाव समाप्त हो गया है-ज्ञाता-ज्ञेय का विकल्प विलीन हो गया है, अब ज्ञान ज्ञानरूप ही रह गया है और पुद्गल पुद्गलरूप ही।।९९।।
इस प्रकार जीव और अजीव कर्ता और कर्म का वेष छोड़कर बाहर निकल
गये।
इस प्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीत समयप्राभृतके
कर्तृकर्माधिकार प्रवचन समाप्त हुआ।।२।।
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