SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८० समयसार शार्दूलविक्रीडितछन्द कर्ता कर्मणि नास्ति नास्ति नियतं कर्मापि तत्कर्तरि द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते यदि तदा का कर्तृकर्मस्थितिः। ज्ञाता ज्ञातरि कर्म कर्मणि सदा व्यक्तेति वस्तुस्थिति नैपथ्ये बत नानटीति रभसान्मोहस्तथाप्येष किम्।।९८।। अर्थ- निश्चय से कर्ता कर्म में नहीं है और कर्म भी कर्ता में नहीं है। जब कर्ता और कर्म इस द्वैत का ही निषेध किया जाता है तब कर्ता और कर्म की क्या स्थिति रह जाती है? ज्ञाता ज्ञाता में रहता है और कर्म कर्म में रहता है, यह सदा से वस्तु की मर्यादा स्पष्ट है। फिर भी यह मोह परदा के भीतर वेग से क्यों अतिशय नृत्य कर रहा है, यह खेद का विषय है। भावार्थ- 'ज्ञाता ज्ञेय को जानता है' यहाँ ज्ञाता कर्ता है और ज्ञेय कर्म है। जब वस्तुस्वरूप की अपेक्षा विचार किया जाता है तब ज्ञाता ज्ञाता ही रहता है, ज्ञेयरूप नहीं हो जाता और ज्ञेय ज्ञेय ही रहता है, ज्ञातारूप नहीं हो जाता, मात्र ज्ञाता के ज्ञानगुण की स्वच्छता से ज्ञेय उसमें प्रतिभासमान होता है, तद्रूप नहीं हो जाता। यह ज्ञाता और ज्ञेय अथवा कर्ता और कर्म की व्यवस्था है। इच्छापूर्वक पदार्थ को जानने का विकल्प तभी तक बनता है जब तक इच्छा के जनक मोहकर्म का विपाक विद्यमान रहता है। मोह की विपाकदशा समाप्त होने पर 'कौन ज्ञाता है कौन ज्ञेय है' यह विकल्प अपने आप शान्त हो जाता है। जब यह विकल्प ही मिट गया तब कर्ता और कर्म की स्थिति भी स्वयं मिट गई। इस तरह वस्तुस्वरूप की यह मर्यादा अत्यन्त स्पष्ट है कि ज्ञाता ज्ञाता में ही रहता है और कर्म कर्म में ही रहता है अर्थात् ज्ञेय ज्ञेय में ही रहता है। परन्तु यह अनादिकालीन मोह परदा के भीतर अपना नाट्य दिखलाकर लोगों को मुग्ध कर रहा है, यह खेद की बात है। अत्यन्त स्पष्ट वस्तुस्वरूप को लोग मोह के वश न समझ सकें, यह खेद का विषय है ही।।९८।। अथवा मोह भले ही नृत्य करता रहे तो भी वस्तु का स्वरूप यथावस्थ रहता है, यही कलशा द्वारा कहते हैं मन्दाक्रान्ताछन्द कर्ता कर्ता भवति न यथा कर्म कर्मापि नैव ज्ञानं ज्ञानं भवति च यथा पुद्गलः पुद्गलोऽपि। ज्ञानज्योतिर्खलितमचलं व्यक्तमन्तस्तथोच्चै श्चिच्छक्तीनां निकरभरतोऽत्यन्तगम्भीरमेतत्।।९९।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy