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कर्तृ-कर्माधिकार
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रथोद्धताछन्द यः करोति स करोति केवलं यस्तु वेत्ति स तु वेत्ति केवलम्। यः करोति न हि वेत्ति स क्वचिद् यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित्।।९६।।
अर्थ- जो करता है वह केवल करता ही है और जो जानता है वह केवल जानता ही है। जो करता है वह कहीं जानता नहीं है और जो जानता है वह कहीं करता नहीं है।
भावार्थ- यहाँ आत्मा की शुद्ध दशा तथा मोहमिश्रित अशुद्ध दशा का युगपत् वर्णन किया गया है। आत्मा की शुद्ध दशा वह है जिससे मोह का प्रभाव बहिर्भत हो गया है और अशुद्ध दशा वह है जिसमें मोह का प्रभाव संवलित है। आत्मा स्वभाव से ज्ञायक ही है कर्ता नहीं, उसमें जो कर्तृत्व का भाव आता है वह मोहनिमित्तक ही है। इसीलिये यहाँ पर कहा गया है कि जो करता है वह करता ही है, जानता नहीं है अर्थात् मोहमिश्रित दशा कर्तृत्व का अहंकार ही लाती है, पदार्थ को जानती नहीं है। जो जानता है वह जानता ही है, करता नहीं है अर्थात् शुद्ध दशा में कर्तृत्व का भाव निकल जाता है, केवल ज्ञायकभाव शेष रह जाता है।।९६।।
इन्द्रवज्राछन्द ज्ञप्तिः करोतौ नहि भासतेऽन्तप्तिौ करोतिश्च न भासतेऽन्तः। ज्ञप्तिः करोतिश्च ततो विभिन्ने ज्ञाता न कर्तेति ततः स्थितं च।।९७।।
अर्थ- जाननेरूप जो क्रिया है वह करने रूप क्रिया के अन्त: में भासमान नहीं होती है और जो करनेरूप क्रिया है वह जाननेरूप क्रिया के मध्य में प्रतिभासमान नहीं होती है, क्योंकि करोति और ज्ञप्ति क्रियाएँ भिन्न-भिन्न हैं। इससे यह सिद्धान्त निश्चित हुआ कि जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं है।
भावार्थ- यह जीव अनादिकाल से मोहमिश्रितदशा का अनुभव कर रहा है अर्थात् इस जीव की ज्ञानधारा अनादिकाल से मोहधारा से मिश्रित हो रही है। ज्ञानधारा का कार्य पदार्थ को जानना है और मोहधारा का कार्य आत्मा को परका कर्ता-धर्ता बनाकर उनमें इष्टानिष्ट बुद्धि उत्पन्न करना है। यहाँ इन दोनों धाराओं का पृथक्-पृथक् कार्य बताया गया है अर्थात् ज्ञानधारा का कार्य जो जानना है उसमें मोहधारा का कार्य जो कर्तत्व का भाव है वह नहीं है और मोहधारा के कार्य में ज्ञानधारा का कार्य नहीं है। सम्यग्ज्ञानी जीव इन दोनों धाराओं के अन्तर को समझता है, इसलिये वह पदार्थ का ज्ञाता तो होता है परन्तु कर्ता नहीं होता।।९७।।
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