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________________ १७८ समयसार शार्दूलविक्रीडितछन्द दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यनिजौघाच्च्युतो दूरादेव विवेकनिम्नगमनानीतो निजौघं बलात्। विज्ञानैकरसस्तदेकरसिनामात्मानमात्माहर वात्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत्।।९४।। अर्थ- यह आत्मा अपने गुणों के समूह से च्युत हो बहुत भारी विकल्पों के जालरूपी वन में दूरतक भ्रमण कर रहा था- भटक रहा था, सो विवेकरूपी निचले मार्ग में गमन करने से बलपूर्वक बड़ी दूर से लाकर पुन: अपने गुणों के समूह में मिला दिया गया है, इसमें एकविज्ञानरस ही शेष रह गया है, यह एक विज्ञानरूपी रस के रसिक मनुष्यों की आत्मा को हरण करता है तथा जल के समान सदा आत्मा में ही लीनता को प्राप्त होता है। भावार्थ- जब यह आत्मा मोह के वशीभूत हो अपने चित्पिण्ड से च्युत होकर बहुत प्रकार विकल्पजाल के वन में भ्रमण करने लगा तब उस विज्ञानरस के जो रसिक थे उन्होंने विवेकरूप निम्नमार्ग से लाकर बलपूर्वक अपने चित्पिण्ड में ही मिला दिया। जैसे समुद्र का जो जल वाष्पादि द्वारा मेघ बनकर इतस्तत: बरसता है। पश्चात् वही जल निम्नगामिनी नदियों के द्वारा अन्त में समुद्र का समुद्र में मिल जाता है। ऐसे ही आत्मा की परिणति मोहकर्म के विपाक से रागद्वेष द्वारा निखिल परपदार्थों में फैल जाती है और जब मोह का अन्त हो जाता है तब भेदज्ञान के बल से पर से विरक्त हो अपने ही चित्पिण्ड में मिल जाती है।९४।। अनुष्टुप्छन्द विकल्पकः परं कर्ता विकल्प: कर्म केवलम्। न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नश्यति।।९५।। अर्थ- विकल्प करनेवाला केवल कर्ता है और विकल्प केवल कर्म है। विकल्पसहित मनुष्य का कर्तृकर्मभाव कभी नष्ट नहीं होता। भावार्थ- स्वभाव से आत्मा ज्ञायक है, मोही या रागी, द्वेषी नहीं है। परन्तु अनादिकाल से इसके ज्ञान के साथ जो मोह की पुट लग रही है उसके प्रभाव से यह नानाप्रकार के विकल्प उठाकर उनका कर्ता बन रहा है तथा वे ही विकल्प इसके कर्म हो रहे हैं। जब ज्ञान से मोह की पुट दूर हो तब इसका कर्तृ-कर्मभाव नष्ट हो। इसलिये कहा गया है कि मोह के उदय से जिसकी आत्मा में नाना विकल्प उठ रहे हैं उसका कर्तृ-कर्मभाव कभी नष्ट नहीं होता।।९५।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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