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कर्तृ-कर्माधिकार
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के कारणभूत समस्त इन्द्रिय और मन सम्बन्धी बुद्धि को तिरस्कृत कर जिसने मतिज्ञान तत्त्व को आत्मा के सम्मुख किया है तथा नानाप्रकार के नयपक्षों के आलम्बन द्वारा अनेक विकल्पों से आकुलता उत्पन्न करनेवाली श्रुतज्ञानरूप बुद्धि को भी गौणकर जो श्रुतज्ञान के तत्त्व को भी आत्माभिमुख करता हुआ जो अत्यन्त निर्विकल्प हो गया है, ऐसा आत्मा ही स्वभाव से शीघ्र प्रकट होनेवाले आदि, मध्य और अन्त से विमुक्त, आकुलतारहित, एक होने पर भी समस्त विश्व के ऊपर तैरते हुए के समान स्थित, अखण्ड प्रतिभास से सहित, विज्ञान-ज्ञान तथा परमात्मस्वरूप समयसार को प्राप्त करता हुआ सम्यक् प्रकार से देखा जाता है— श्रद्धान किया जाता है तथा जाना जाता है। इसलिये जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है वह समयसार ही है।।१४४।। अब इसी भाव को कलशकाव्यों के द्वारा प्रकट करते हैं
शार्दूलविक्रीडितछन्द आक्रामन्नविकल्पभावमचलं पक्षैर्नयानां विना
सारो यः समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमान: स्वयम्। विज्ञानैकरसः स एष भगवान्पुण्यः पुराण: पुमान्
ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किञ्चनैकोऽप्ययम् ।।९३।। अर्थ- नयों के पक्ष के बिना अविनाशी, अविकल्पभाव को प्राप्त, निश्चल, मनुष्यों के द्वारा स्वयं अनुभव में आनेवाला तथा विज्ञानस्वरूप एकरस से युक्त जो यह समयसार सुशोभित हो रहा है वही यह भगवान् है, वही सनातन पुण्यपुरुष है, उसे चाहे ज्ञान कहो, चाहे दर्शन कहो अथवा जो चाहो सो कहो, वह एक ही इन शब्दों से व्यपदेश को प्राप्त होता है।
भावार्थ- यहाँ आत्मा की शुद्धपरिणतिरूप उस समयसार की महिमा गाई गई है जिसमें नयों का पक्ष छूट जाने से स्थायी अविकल्पदशा की प्राप्ति हो जाती है, विकल्प जाल से रहित, निश्चल, मनुष्यों को जिसका अनुभव स्वयं होने लगता है तथा जिसमें रागादिविकारी भावों की पुट निकल जाने से एक ज्ञानरूप रस ही शेष रह जाता है। इसी समयसार को भगवान् कहते हैं, यही पुण्य पुराणपुरुष अर्थात् परमात्मा कहलाता है, गुण और गुणी में अभेद दृष्टि होने से इसे ही ज्ञान कहते हैं, दर्शन कहते हैं अथवा सुख तथा वीर्य आदि की प्रधानता से जिस गुणरूप कहना चाहें, कह सकते हैं। इस तरह नामों की विभिन्नता होने पर भी यह प्रतिपाद्यरूप से एक ही है।।९३।।
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