________________
१८४
समयसार
अज्ञानमय होने से एक हैं। इस तरह दोनों में एकपन होने से शुभ-अशुभकर्मों के कारणों में भेद नहीं रहा, अत: कर्म एक है। पुद्गलपरिणाम चाहे शुभ हो, चाहे अशुभ हो, दोनों ही केवल पुद्गलमय हैं। इस तरह दोनों में एकपन होने से स्वभाव में भेद नहीं रहा, अत: कर्म एक है। कर्म का पाक चाहे शुभ हो, चाहे अशुभ हो, दोनों ही केवल पुद्गलमय हैं। इस तरह दोनों में एकपन होने से अनुभव में भेद नहीं रहा, अत: कर्म एक है। मोक्षमार्ग शुभ है और बन्धमार्ग अशुभ है। तथा मोक्षमार्ग केवल जीवमय है और बन्ध मार्ग केवल पुद्गलमय है, इसलिये दोनों अनेक हैंपृथक्-पृथक् हैं, इस तरह दोनों में अनेकपन होनेपर भी शुभकर्म और अशुभकर्म दोनों कर्म केवल पुद्गलमय बन्धमार्ग के आश्रित है। इसलिये शुभाशुभ कर्म का एक ही आश्रय होने से कर्म एक है। इसी बात को कलशा में स्पष्ट करते हैं
उपजातिछन्द हेतुस्वभावानुभवाश्रयाणां
सदाप्यभेदान्नहि कर्मभेदः। तबन्धमार्गाश्रितमेकमिष्टं
स्वयं समस्तं खलु बन्धहेतुः।।१०२।। अर्थ- हेतु, स्वभाव, अनुभव और आश्रय इन चारों की अभिन्नता से कर्म में भिन्नता नहीं है। बन्धमार्ग के आश्रय से वह कर्म एक ही प्रकार का माना गया है, क्योंकि चाहे शुभ कर्म हो, चाहे अशुभकर्म हो, सब प्रकार का कर्म निश्चय से स्वयं ही बन्ध का कारण है।
भावार्थ- शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों के हेतु, स्वभाव, अनुभव और आश्रय में भेद नहीं है, इसलिये कर्मों में शुभाशुभ का भेद नहीं है। किन्तु दोनों ही कर्म बन्धमार्ग के आश्रित होने से एक ही हैं।।१०२।।
अब दोनों प्रकार के कर्म समानरूप से बन्ध के कारण हैं, यह सिद्ध करते हैं
सौवणियं पिणियलं बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्म।।१४६।।
अर्थ- जैसे लोहे की बेड़ी पुरुष को बाँधती है वैसे ही सुवर्ण की बेड़ी भी पुरुष को बाँधती है। इसी पद्धति से चाहे शुभकर्म किया हो, चाहे अशुभ कर्म किया हो, दोनों ही कर्म पुरुष को बाँधते हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org