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________________ कर्तृ-कर्माधिकार १७५ को प्राप्त होता है। उस शुद्ध स्वभाव की शरण को प्राप्त करने के लिए ज्ञानी जीव निरन्तर ऐसा चिन्तन करता है कि मैं तो चिन्मात्र तेज का वह पुञ्ज हूँ जिसकी एक ही कौंद नयपक्षों के आश्रय से उठने वाले नाना विकल्पों के इन्द्रजाल को तत्काल नष्ट कर देती है। इस प्रकार के चिन्तन से ज्ञानी जीव स्वीय स्वभाव को प्राप्त होता।।९१।। आगे पक्षातिक्रान्त पुरुष का क्या स्वरूप है? यही दिखाते हैंदोणं वि णयाण भणियं जाणइ णवरिं तु समयपडिबद्धो। ण दुणयपक्खं गिह्णदि किंचि विणयपक्खपरिहीणो।।१४३।। अर्थ- शुद्ध आत्मस्वरूप में लीन रहनेवाला जो पुरुष दोनों नयों के कथन को जानता तो है, किन्तु किसी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करता है वही नयपक्ष से रहित है अर्थात् पक्षातिक्रान्त है। विशेषार्थ- जिस प्रकार केवली भगवान् विश्व के साक्षीभूत अर्थात् समस्त पदार्थों के ज्ञाता होने से श्रुतज्ञान के अवयवभूत व्यवहारनय और निश्चयनय के पक्ष का केवल स्वरूप जानते हैं परन्तु किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करते, क्योंकि केवली भगवान् निरन्तर उदयरूप स्वाभाविक निर्मल सकल केवलज्ञान स्वभाववाले हैं, इसीलिये नित्य ही अपने आप विज्ञानघनस्वभाव हैं और इसी से श्रुतज्ञान की भूमिका से अतिक्रान्त होने के कारण समस्त नयपक्षों के ग्रहण करने से दूर हैं। इसी प्रकार जो श्रुतज्ञानी हैं वे भी श्रुतज्ञान के अवयवभूत व्यवहार और निश्चयनय के पक्ष को केवल जानते हैं, किसी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करते। यद्यपि उनके श्रुतज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से जायमान श्रुतज्ञानात्मक विकल्प उठते हैं परन्तु परपदार्थों के ग्रहण-विषयक उत्सुकता के दूर हो जाने से वे उन विकल्पों की ओर लक्ष्य नहीं देते। श्रुतज्ञानी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करते, इसका कारण यह है कि वे अत्यन्त तीक्ष्ण दृष्टि से गृहीत-निरुपाधि, नित्योदित एवं चैतन्यमय शुद्ध आत्मस्वरूप में प्रतिबद्ध होने के कारण उस काल में अपने आप विज्ञानघनस्वरूप हो रहे हैं तथा श्रुतज्ञानात्मक समस्त अन्तर्जल्प और बहिर्जल्परूप समस्त विकल्पों की भूमिका से परे होने के कारण समस्त नयपक्ष के परिग्रह से दूरीभूत हैं। निश्चय से ऐसा श्रुतज्ञानी समस्त विकल्पों से अत्यन्त परे है, वही परमात्मा है, वही ज्ञानात्मा है, प्रत्यग्ज्योतिस्वरूप भी वही है, आत्मख्यातिस्वरूप भी वही है और वही अनुभूतिमात्र समयसार है। यहाँ कहने का यह तात्पर्य है कि जैसे केवली भगवान् सब नयों के ज्ञाता-द्रष्टा हैं, परन्तु मोह का अभाव होने से किसी भी पक्ष को ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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