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कर्तृ-कर्माधिकार
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एकस्य दृश्यो न तथा परस्य
चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।।८७।। अर्थ- एक नय का कहना है कि आत्मा दृश्य है क्योंकि अन्तर्मुखाकारतया प्रतिभासमान हो रहा है और अन्य नय का कहना है कि आत्मा दृश्य नहीं है क्योंकि बहि:पदार्थ को विषय करनेवाले ज्ञान का विषय नहीं है। इस रीति से एक ही आत्मा में दृश्य और अदृश्य दो तरह के धर्मों का प्रतिपादन करनेवाले दो नय हैं। किन्तु जिसकी तत्त्वज्ञानदृष्टि से यह विकल्पजाल छिन्न-भिन्न हो गया है उसका कहना है कि आत्मा तो आत्मा ही है।।८७।।
एकस्य वेद्यो न तथा परस्य
चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।।८८।। अर्थ- एक नय का कहना है कि आत्मा वेद्य है, क्योंकि स्वसंवेदन का विषय है। इससे भिन्न नय का कहना है कि आत्मा वेद्य नहीं है। ऐसे एक ही आत्मा को वेद्य और अवेद्यरूप से निरूपित करनेवाले दो नय हैं। परन्तु जो विकल्पजाल से पृथक् है और तत्त्वज्ञान के मधुर स्वाद का अनुभवी है वह कहता है कि इन विकल्पों को छोड़ो, आत्मा तो आत्मा ही है।।८८।।
एकस्य भातो न तथा परस्य .
चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।।८९।। अर्थ- एक नय कहना है कि आत्मा भात है अर्थात् प्रत्यक्षभासमान है और अन्य नय का कहना है कि आत्मा भात नहीं है अर्थात् प्रत्यक्षभासमान नहीं है। ऐसे दो नयों द्वारा दो तरह का भात-अभात कथन होता है। परन्तु जो महान् पुरुष इस विकल्पजाल के चक्र से छूट गया है और तात्त्विक ज्ञानवाला है उसका यह कहना है कि चिद् चिद्रूप ही है।।८९।।
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