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समयसार
एकस्य वाच्यो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।। ८४ ।।
अर्थ - एक नय का कहना है कि आत्मा वाच्य है क्योंकि वाचक द्वारा इसका कथन होता है और अन्य नय का आदेश है कि आत्मा अवाच्य है, क्योंकि परमार्थ से आत्मा का वास्तविक कथन शब्द के अगोचर है। इस तरह एक ही आत्म वाच्य और अवाच्य दो रूप से दोनों नयों द्वारा कहा जाता है, परन्तु जो विकल्पजाल से परे है तथा तत्त्वज्ञान का आस्वादी है उसका कहना है चित् आत्मा तो चिद्रूप ही है, यह विकल्प केवल शिष्य-सम्बोधन के अर्थ है ।। ८४ ।।
एकस्य नाना न तथा परस्य
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चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।। ८५ ।।
अर्थ - एक नय का इस प्रकार कथन है कि आत्मा नाना है क्योंकि अनेक प्रकार से उसमें नाना प्रकार के धर्मों का कथन होता है। इससे भिन्न नय का कथन है कि आत्मा नाना नहीं है क्योंकि अनेक प्रकार से कथन होनेपर भी वह एकरूपता को नहीं छोड़ता। इस तरह एक ही आत्मा में अनेक और एक धर्मों का दो नयों द्वारा निरूपण किया जाता है । परन्तु जो विकल्पजाल से च्युत हैं तथा तत्त्वज्ञानी हैं उनका कहना है कि आत्मा तो चिद्रूप ही है ।। ८५ ।।
एकस्य चेत्यो न तथा परस्य
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।। ८६ ।।
अर्थ - एक नय का कहना है कि आत्मा चेत्य है— जानने के योग्य है और अपर नय का कहना है कि आत्मा इससे भिन्न रूप है, ऐसा उभयनयों का चेत्य और अचेत्य रूप से कथन होता है । परन्तु जो विकल्पजाल के फन्दे से निकल गया है तथा तत्त्व को जानता है वह कहता है कि इन विकल्पों को छोड़ो। वह विनात्मक आत्मा तो चिद्रूप ही है ।। ८६ ।।
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