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कर्तृ-कर्माधिकार
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एकस्य चैको न तथा परस्य
चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।।८१।। अर्थ- एक नय का कहना है कि आत्मा एकरूप है और एक नय का कहना है कि आत्मा एकरूप नहीं है। ऐसे एक ही आत्मा में उभयनय एक-अनेकरूप से निरूपण करते हैं। परन्तु जिसका पक्षपात चला गया है तथा जो तत्त्व का जानने वाला है उसके सिद्धान्त में निश्चय से चेतना चेतनारूप ही है।।८१।।
एकस्य शान्तो न तथा परस्य
चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।।८२।। अर्थ- एक नय का कहना है कि आत्मा शान्त है, इससे भिन्न नय का कहना है कि आत्मा अशान्त है, ऐसे उभयनय एक ही आत्मा का शान्त' और अशान्तर रूप से कथन करते हैं। परन्तु जो पक्षपात के जाल से दूर है और तत्त्वज्ञानवाला है उसका कहना है कि चित् तो चित्रूप ही है।।८२।।
एकस्य नित्यो न तथा परस्य
चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।।८३।। अर्थ- एक नय का कहना है कि आत्मा सर्वदैव नित्य है और इससे विरुद्ध आदेश करनेवाले नय का कथन है कि आत्मा अनित्य है। इस तरह एक ही आत्मा में दोनों नय नित्य और अनित्यरूप से निरूपण करते हैं। परन्तु जिसके तत्त्वज्ञान हो गया है और जो नयों के विकल्पजाल से दूर है उसका कहना है कि आत्म तो आत्मा ही है, ये सब विकल्प नयदृष्टि से हैं, परमार्थ से वस्तु सर्वविकल्पातीत है।।८३।।
१. सान्त और असान्त भी पाठ पाया जाता है जिसका अर्थ अन्तसहित और अन्तरहित
होता है।
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