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________________ कर्तृ-कर्माधिकार १६७ अर्थ- जीव के साथ कर्मों का बन्ध भी है और अबन्ध भी है, इस प्रकार नयपक्ष जानो और जो इस नयपक्ष का अतिक्रमण करनेवाला है वह समयसार कहा जाता है। विशेषार्थ- जीव के साथ कर्मों का बन्ध है और जीव के साथ कर्मों का अबन्ध है, यह दो विकल्प हैं ये दोनों ही नयपक्ष हैं। जो पुरुष इन दोनों ही नयों का अतिक्रमण करता है वही पुरुष सकल विकल्पों का अतिक्रमण करता हुआ स्वयं निर्विकल्प तथा एक विज्ञानघनस्वभाव होकर साक्षात् सम्यक् रीति से समयसार होता है। यहाँ पर जो प्रथम ही यह विकल्प करता है कि जीव में कर्म बँधे हैं वह, “जीव में कर्म नहीं बँधे हैं इस पक्ष का अतिक्रमण करता हुआ भी, विकल्प का अतिक्रमण नहीं कर सकता है। और जो जीव में कर्म नहीं बँधे हैं, ऐसा विकल्प करता है वह “जीव में कर्म बँधे हैं' इस पक्ष का अतिक्रमण करता हुआ भी उक्त विकल्प का अतिक्रमण नहीं कर सकता है। और जो जीव में कर्मबद्ध भी हैं और अबद्ध भी हैं ऐसे दो विकल्प करता है वह, दोनों पक्षों का अतिक्रमण करता हुआ भी उक्त दोनों विकल्पों का अतिक्रमण नहीं कर पाता है। इससे जो समस्त नयपक्षों का अतिक्रमण करता है वही पुरुष समस्त विकल्पों का अतिक्रमण करता है और जो समस्त विकल्पों का अतिक्रमण करता है वही वास्तव में समयसार को प्राप्त होता है। इसका तात्पर्य यह है कि साधक अवस्था में ही नाना प्रकार के विकल्पजाल हैं, मोह का अभाव होने पर जब यह आत्मा स्वकीय स्वरूप में लय को प्राप्त हो जाता है तब इन नयों के द्वारा होनेवाले नाना विकल्प अपने आप अभावरूप हो जाते हैं। यदि ऐसा है तो कौन पुरुष इन नयपक्षों के त्याग की भावना नहीं करेगा? अर्थात् सभी करेंगे।।१३२।। यही अभिप्राय श्री अमृतचन्द्र स्वामी कलश काव्यों में प्रकट करते हैं उपेन्द्रवज्राछन्द य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यम। विकल्पजालच्युतशान्तचित्तास्त एव साक्षादमृतं पिवन्ति।।६९।। अर्थ- जो महापरुष नयपक्ष को छोड़कर स्वरूप में लीन होते हए निरन्तर अपने आप में निवास करते हैं वे ही विकल्पजाल से च्युत होकर शान्त चित्त होते हुए साक्षात् अमृत का पान करते हैं।।६९।। उपजातिछन्द एकस्य बद्धो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।।७० ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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