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________________ १६६ समयसार ऐसा मानना पड़ेगा, सो यह बात इष्ट नहीं है, क्योंकि पद्लद्रव्य का ही कर्मभावरूप परिणाम होता है और वह जो कर्मरूप परिणमन है वह जीव के रागादिकभावों के बिना केवल पुद्गल का ही परिणाम है अर्थात् जो ज्ञानावरणादि रूप परिणाम है वह केवल पुद्गल का ही है। विशेषार्थ- पुद्गलद्रव्य का जो कर्मरूप परिणमन हो रहा है वह उस परिणमन में निमित्तभूत रागादिक अज्ञानभावरूप परिणत जीव के साथ ही होता है, यदि ऐसा माना जावे तो जिस प्रकार लालरङ्ग रूप परिणमन परस्पर मिले हुए हलदी और चूना दोनों का ही है उसी प्रकार कर्मरूप परिणमन पुद्गलद्रव्य और जीव दोनों का ही है, ऐसा मानना पड़ेगा और यह इष्ट नहीं, क्योंकि चूना और हलदी दोनों ही एक पुद्गलद्रव्य हैं, अत: उन दोनों का एकरूप परिणमन हो जाता है, इसमें कोई बाधा नहीं, परन्तु यहाँ तो जीव और पुद्गल दो विजातीय द्रव्य हैं, इनका एकरूप परिणमन होना असंभव है। अतः ज्ञानावरणादिरूप केवल पुद्गलद्रव्य का ही परिणाम है और वह रागादिरूप परिणत जीव से भिन्न केवल पुद्गलद्रव्य का ही परिणाम है।।१३९,१४०।। आगे शिष्य का प्रश्न है कि आत्मा में कर्म बद्धस्पृष्ट हैं या अबद्धस्पृष्ट हैं ? इसका उत्तर नयविभाग से देते हैं जीवे कम्मं बद्धं पुढे चेदि ववहारणय भणिदं । सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्धपुढे हवइ कम्मं ।।१४१।। अर्थ- कर्म, जीव में बँधा हुआ भी है और उसे स्पर्शता भी है, ऐसा त्यवहारनय का कथन है। परन्तु शुद्धनय का वचन है कि कर्म जीव में न बँधा हुआ है और न उसे स्पर्शता ही है। विशेषार्थ- जीव और पुद्गलकर्म इन दोनों में एक बन्धपर्याय की दृष्टि से यदि परामर्श किया जावे, तो अत्यन्त भेद का अभाव है। अर्थात् भेद तो है परन्तु बन्ध होने से वर्तमान में भेद का अभाव है, इससे जीव के साथ कर्मों का बन्ध भी है और स्पर्श भी है, ऐसा व्यवहारनय का पक्ष है। निश्चयदृष्टि से देखा जावे तो जीव और पुद्गलकर्म भिन्न-भिन्न द्रव्य हैं, अतएव उनमें परस्पर अत्यन्त भिन्नपन हैं, इसीसे जीव के साथ पुद्गलकर्म का न तो बन्ध है और न स्पर्श।।१४१।। आगे इससे क्या सिद्ध हुआ, यह दिखाते हैं कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाण णयपक्खं। पक्खातिक्कंतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो।।१४२।। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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