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कर्तृ-कर्माधिकार
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विशेषार्थ- अज्ञानी जीव के स्व और पर का सम्यक् भेदज्ञान नहीं है। इसीसे उसके आत्मज्ञान का अत्यन्त अभाव है, और उसका अभाव होने के उसके अज्ञानमय ही भाव होता है, उस अज्ञानमय भाव के होने पर स्व और पर में एकत्व का अध्यास होता है, उस एकत्वाध्यास के कारण ज्ञानमात्र निजस्वरूप से भ्रष्ट होता हुआ यह जीव पररूप रागद्वेष के साथ एकरूप होकर अहंकार में प्रवृत्ति करता है अर्थात् परद्रव्य को आत्मरूप मानने लगता है और फिर यह मानता है कि मैं रागी हूँ, मैं द्वेषी हूँ। तथा उस अज्ञानमयभाव से अज्ञानी होकर पर रूप रागद्वेष को अपनाकर कर्मों को करता हैं। किन्तु ज्ञानी जीव के स्व तथा पर का समीचीन भेदज्ञान होने से परपदार्थ से भिन्न शुद्ध आत्मा की अनुभूति का अत्यन्त उदय हो जाता है, इसलिये उसके ज्ञानमय ही भाव होता है। उस ज्ञानमय भाव के होने पर स्व-पर में नानात्वरूप भेदज्ञान होने से वह ज्ञानमात्र स्व-स्वरूप में अच्छी तरह स्थिर हो जाता है, पररूप रागद्वेष से पृथक्भूत होने के कारण इसका अहंकार अर्थात् परपदार्थों में आत्मभाव स्वयं निवृत्त हो जाता है, अतः वह स्वयं पदार्थों को मात्र जानता ही है, उनमें न राग करता है और न द्वेष। इसीसे ज्ञानी जीव ज्ञानमयभाव से पर जो रागद्वेष हैं उनरूप अपने को नहीं करता हुआ कर्मों को नहीं करता है। तात्पर्य यह है कि अज्ञानी जीव भेदज्ञान के अभाव में उदयागत मोह तथा रागद्वेष में अहंकार और ममकार करता हुआ कर्मों का कर्ता होता है और ज्ञानी जीव भेदज्ञान की महिमा से उदयागत मोह तथा रागद्वेष में अहंकार और ममकार न करता हुआ कर्मों का कर्ता नहीं होता है । इस तरह अज्ञानी जीव का अज्ञानमय भाव ही कर्मों का कारण है और ज्ञानी जीव का ज्ञानमय भाव कर्मों का कारण नहीं है । । १२७ ।।
अब आगे की गाथाओं की भूमिका के लिये प्रश्नरूप कलशा कहते हैंआर्याछन्द
ज्ञानमय एव भावः कुतो भवेद् ज्ञानिनो न पुनरन्यः ।
अज्ञानमयः सर्वः कुतोऽयमज्ञानिनो नान्यः ।। ६६ ।।
अर्थ- ज्ञानी जीव के ज्ञानमय ही भाव क्यों होता है अन्य भाव क्यों नहीं होता और अज्ञानी जीव का सब भाव अज्ञानमय ही क्यों होता है अन्य भाव क्यों नहीं होता ? ।। ६६ ।
इसी का आचार्य आगे समाधान करते हैं
णाणमया भावाओ णाणमओ चेव जायदे भावो ।
जाता णाणिस्स सव्वे भावा हु णाणमया । । १२८ । ।
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