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समयसार
विशेषार्थ- इस प्रकार यह आत्मा अपने आप परिणामस्वभाव वाला है। अत: जब जिस भाव को करता है वही भाव इसका कर्म कहलाता है और आत्मा उस भाव का कर्ता होता है। ज्ञानी जीव के समीचीनरूप से स्वपर का भेदज्ञान है। उसके बल से इसके आत्मख्याति (आत्मानुभूति) का अत्यन्त उदय रहता है। उस आत्मख्याति के उदय से इसका वह भाव ज्ञानमय ही होता है और जो अज्ञानी जीव है उसके स्वपरभेदज्ञान का अभाव है। अतएव उसके शुद्ध आत्मख्याति का अत्यन्त अस्तपन है। अर्थात् आत्मख्याति का उसके अभाव है, इसी से अज्ञानी जीव के अज्ञानमय भाव होता है।
परमार्थ से संसार के प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने परिणमन के कर्ता होते हैं, वस्तुस्वभाव की यही मर्यादा है। इस मर्यादा से जीव भी अपने ही परिणमन का कर्ता होता है और उसका वह परिणमन ही उसका कर्म कहलाता है। अनादिकाल से जीव का परिणमन रागादि विकारों से संवलित हो रहा है। इस संवलन के कारण शुद्ध आत्मा की परिणति तिरोहित हो रही है, परन्तु ज्ञानी जीव को स्व और पर का यथार्थ भेदज्ञान हो चुकता है, इसलिये उसे शुद्ध आत्मा की परिणति का अनुभव होने लगता है। आत्मा की शुद्ध परिणति ज्ञानमय परिणति है क्योंकि उसी के साथ इसका त्रैकालिक व्याप्यव्यापकभाव रहता है। इस दशा में ज्ञानी जीव का परिणमन ज्ञानरूप होता है। उसी परिणमन का ज्ञानी जीव कर्ता होता है और वही परिणमन ज्ञानी जीव का कर्म होता है। परन्तु अज्ञानी जीव को समीचीन रूप से स्व और पर का भेदज्ञान नहीं होता, इसलिये वह मोहकर्म के उदय से जायमान रागादिरूप परिणति से भिन्न शुद्ध आत्मपरिणति का अनुभव करने में असमर्थ रहता है। रागादिरूप परिणति आत्मा की निज की परिणति नहीं है क्योंकि उसके साथ आत्मा का त्रैकालिक व्याप्यव्यापक भाव नहीं है। इस रागादिरूप परिणति को अज्ञानमय भाव कहते हैं। अज्ञानी जीव इसी अज्ञानमय भाव को करता है, इसलिये वह इसी का कर्ता होता है और वही अज्ञानी जीव का कर्म होता है।।१२६।।
आगे ज्ञानमयभाव से क्या होता है? और अज्ञानमयभाव से क्या होता है, यह कहते हैं
अण्णाणमओ भावो अणाणिणो कुणदि तेण कम्माणि। णाणमओ णाणिस्स दुण कुणदि तह्या दु कम्माणि।।१२७।।
अर्थ- अज्ञानी जीव के अज्ञानमयभाव होता है, इसी से वह कर्मों को करता है और ज्ञानी जीव के ज्ञानमय भाव होता है, इसी से वह कर्मों को नहीं करता है।
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