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कर्तृ-कर्माधिकार
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अन्य-पुद्गलकर्म के द्वारा तद्रूप कैसे परिणमाया जा सकता है? क्योंकि जो शक्ति पदार्थ में स्वयं नहीं है वह अन्य के द्वारा नहीं की जा सकती। द्वितीय पक्ष में यदि स्वयं परिणमनशील जीव को पुद्गलद्रव्य क्रोधादि, क्रोधादिभावरूप परिणमाते हैं, ऐसा माना जावे, तो ठीक नहीं है क्योंकि स्वयं परिणमनशील पदार्थ अन्य परिणमन करानेवाले की अपेक्षा कभी नहीं करता। जो वस्तु की शक्तियाँ हैं वे दूसरी की अपेक्षा कभी नहीं करती हैं, अत: यह सिद्ध हुआ कि जीवद्रव्य स्वयमेव परिणामस्वभाव वाला है। ऐसा होने पर जिस प्रकार मन्त्र का साधक जब गरुड का ध्यान करता है तब वह गरुड के ध्यानरूप परिणत होने से स्वयं गरुड हो जाता है उसी प्रकार अज्ञानस्वभाव क्रोधादिरूप जिसका उपयोग परिणमन हो रहा है, ऐसा जीव स्वयं क्रोधादिरूप हो जाता है। इस तरह जीवद्रव्य परिणामस्वभाव वाला है, यह सिद्ध हुआ।।१२१-१२५।। यही भाव श्री अमृतचन्द्रस्वामी कलशा में प्रकट करते हैं
उपजातिछन्द स्थितेति जीवस्य निरन्तराया
स्वभावभूता परिणामशक्तिः। तस्यां स्थितायां स करोति भावं
___यं स्वस्य तस्यैव भवेत्स कर्ता।।६५।। अर्थ- इस पद्धति से जीव की स्वभावभूत परिणमनशक्ति निर्विघ्न सिद्ध होती है उस शक्ति के रहते हुए जीव अपने जिस भाव को करता है उसी भाव का वह कर्ता होता है।
भावार्थ- वैभाविकी शक्ति के कारण जीव में क्रोधादिरूप परिणमन करने की योग्यता स्वयं विद्यमान है। इस योग्यता के रहते हुए पुद्गलमय द्रव्यकर्म क्रोधादिक की विपाकदशा का निमित्त पाकर जीव स्वयं क्रोधादिरूप परिणमन करता है। अपनी इस परिणमन-सम्बन्धी योग्यता से जीव जिस भाव को करता है। उसी भाव का कर्ता कहलाता है।।६५।।
आगे इसी को दिखाते हैंजं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स कम्मस्स। णाणिस्स सणाणमओ अण्णाणमओ अणाणिस्स।।१२६।।
अर्थ- आत्मा जिस भाव को करता है वह उसी भावरूप कर्म का कर्ता होता है। ज्ञानी के वह भाव ज्ञानमय होता है और अज्ञानी के अज्ञानमय।
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