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________________ १५८ समयसार पुग्गलकम्मं कोहो जीवं परिणामएदि कोहत्तं । तं सयमपरिणमंतं कहं णु परिणामयदि कोहो ।।१२३।। अह सयमप्पा परिणमदि कोहभावेण एस दे बुद्धी । कोहो परिणामयदे जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा।।१२४।। कोहुवजुत्तो कोहो माणुवजुत्तो य माणमेवादा । माउवजुत्तो माया लोहुवजुत्तो हवदि लोहो ।।१२५।। (पञ्चकम्) अर्थ- यदि तुम्हारा यह मत हो कि यह जीव न तो अपने आप कर्म के साथ बँधा है और न स्वयं क्रोधादिरूप परिणमन करता है तो वह अपरिणामी हो जावेगा और जब जीव क्रोधादिक भावरूप स्वयं परिणमन नहीं करेगा तब संसार का अभाव हो जावेगा अथवा सांख्यसिद्धान्त की आपत्ति उपस्थित होगी। उसका वारण करने के लिए यदि ऐसा माना जावे कि पुद्गलकर्म क्रोधादिक (द्रव्यकर्म) जीव को क्रोधादिरूप (भावकर्मरूप) परिणमाते हैं तो सहज ही यह आशङ्का होती है कि पुद्गलकर्म क्रोध, अपने आप क्रोधादिरूप परिणमन करनेवाले जीव को क्रोधादिरूप परिणमाता है? या नहीं परिणमन करनेवाले जीव को क्रोधादिरूप परिणमाता है? प्रथम पक्ष में स्वयं क्रोधादिरूप न परिणमते हुए जीव को पुद्गलकर्म क्रोधादिक तद्रूप कैसे परिणमा सकता है? द्वितीय पक्ष में जीव स्वयं क्रोधादिरूप परिणमन करता है, ऐसी यदि तुम्हारी बुद्धि है तो फिर पुद्गलकर्म क्रोधादिक जीव को क्रोधादिरूप परिणमाता है, यह कहना नितान्त मिथ्या हो जावेगा। अत: यह सिद्ध हुआ कि जब आत्मा क्रोध से उपयुक्त होता है तब स्वयं क्रोध है, जब मान से उपयुक्त होता है तब स्वयं मान है, जब माया से उपयुक्त होता है तब स्वयं माया है और जब लोभ से उपयुक्त होता है तब स्वयं लोभ है। विशेषार्थ- जीव कर्म के साथ न तो स्वयं बँधा है और न स्वयं क्रोधादिरूप परिणमन करता है, यदि ऐसा माना जावे तो जीव अपरिणामी ही ठहरता है और ऐसा होने पर संसार के अभाव का प्रसङ्ग आता है। इसके निवारण के लिए यदि यह तर्क उपस्थित किया जावे कि पद्गलकर्म क्रोधादिक, जीव को क्रोधादिभावरूप परिणमाता है, इससे संसार का अभाव नहीं होगा, तो यहाँ यह आशङ्का होती है कि पुद्गलकर्म क्रोधादिक, अपने आप न परिणमते हुए जीव को क्रोधारिरूप परिणमाता है? या अपने आप क्रोधादिरूप परिणमते हुए जीव को क्रोधादिरूप परिणमाता है? प्रथम पक्ष में स्वयं क्रोधादिरूप नहीं परिणमता हुआ जीव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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