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________________ कर्तृ-कर्माधिकार १५७ का अभाव होगा और न सांख्यमत की आपत्ति आवेगी, ऐसा तर्क किया जावे तो ऐसी आशङ्का होती है कि अपने आप नहीं परिणमन करनेवाले पुद्गलद्रव्य को जीव कर्मभावरूप परिणमाता है? अथवा अपने आप परिणमते हुए पुद्गलद्रव्य को कर्मभावरूप परिणमाता है? इनमें प्रथम पक्ष ठीक नहीं है क्योंकि अपने आप परिणमन न करनेवाले को अन्य तद्रूप परिणमन कराने में सर्वथा असमर्थ है, “जो शक्ति स्वयं नहीं है वह दूसरे के द्वारा नहीं की जा सकती।' यदि दूसरा पक्ष अंगीकृत किया जावे अर्थात् स्वयं परिणमनशील हैं ऐसा माना जावे तो पर ने क्या किया? "अपने आप परिणमता हुआ पदार्थ अन्य परिणमन करानेवाले की अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा कभी नहीं करती है।' इससे यह बात सिद्ध हुई कि पुद्गलद्रव्य अपने आप परिणामस्वभाववाला है। ऐसा होने पर जैसे कलशरूप परिणत मिट्टी स्वयमेव कलश है वैसे ही जड़स्वभाव ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणत जो पुद्गलद्रव्य है वही स्वयं ज्ञानावरणादिकर्म है। इस तरह पुद्गलद्रव्य का परिणामस्वभाव सिद्ध हो जाता है।।११६-१२०।। इसी के समर्थन में श्री अमृतचन्द्र स्वामी कलशा लिखते हैं उपजातिछन्द स्थितेत्यविध्ना खलु पुद्गलस्य स्वभावभूता परिणामशक्तिः। तस्यां स्थितायां स करोति भावं यमात्मनस्तस्य स एव कर्ता।।६४।। अर्थ- इस पद्धति से पुद्गलद्रव्य की परिणमन शक्ति निर्विघ्न स्वभावभूत सिद्ध है। उस शक्ति के रहते हुए पुद्गलद्रव्य अपने जिस भाव को करता है उस भाव का वही पुद्गलद्रव्य कर्ता होता है। ___ भावार्थ- यहाँ उपादान की प्रधानता से पुद्गलद्रव्य को ही कर्म का कर्ता बताया गया है। इस प्रकार पुद्गलद्रव्य के परिणामस्वभाव को सिद्ध कर अब जीव के परिणामस्वभाव को सिद्ध करते हैं ण सयं बद्धो कम्मे ण सयं परिणमदि कोहमादीहिं । जइ एस तुज्झ जीवो अप्परिणामी तदा होदी ।।१२१।। अपरिणमंतरि सयं जीवे कोहादिएहिं भावेहिं । संसारस्स अभावो पसज्जदे संख-समओ वा ।।१२२।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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