SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२ समयसार अण्णाणमया भावा अण्णाणो चेव जायए भावो । जह्मा तह्या भावा अण्णाणमया अणाणिस्स ।। १२९ ।। (युग्मम्) अर्थ - जिस कारण ज्ञानमय भाव से ज्ञानमय ही भाव उत्पन्न होता है, इसलिए ज्ञानी के निश्चयकर सकल भाव ज्ञानमय ही होते हैं और जिस कारण अज्ञानमय भाव से अज्ञानमय ही भाव उत्पन्न होता है, इसलिए अज्ञानी जीव के अज्ञानमय भाव ही होते हैं। विशेषार्थ - जिस कारण निश्चयकर अज्ञानमय भाव से जो कोई भी भाव होता है वह सम्पूर्ण भाव अज्ञानरूपता का अतिक्रमण न करता हुआ अज्ञानमय ही होता है, इस कारण अज्ञानी जीव के जितने भाव हैं वे सब अज्ञानमय ही होते हैं और जिस कारण ज्ञानमय भाव से जो कुछ भी भाव होता है वह सम्पूर्ण भाव ज्ञानरूपता का अतिक्रमण न करता हुआ ज्ञानमय ही होता है, इस कारण ज्ञानी जीव के सभी भाव ज्ञानमय ही होते हैं । । १२८- १२९ ।। इसी भाव को कलशा में दिखाते हैं अनुष्टुप्छन्द ज्ञानिनो ज्ञाननिर्वृत्ताः सर्वे भावा भवन्ति हि । सर्वेऽप्यज्ञाननिर्वृत्ता भवन्त्यज्ञानिनस्तु ते ।। ६७ ।। अर्थ- ज्ञानी जीव के सब भाव ज्ञान से ही निष्पन्न होते हैं और अज्ञानी जीव के सब भाव अज्ञान से ही रचे जाते हैं । । ६७।। आगे इसी सिद्धान्त का दृष्टान्त से समर्थन करते हैंकणयमया भावादा जायंते कुंडलादयो भावा । अयमयया भावादो जह जायंते तु कडयादी ।। १३० । अण्णाणमया भावा अणाणिणो बहुविहा वि जायंते । णाणिस्स दु णाणमया सव्वे भावा तहा होंति । । १३१ । । अर्थ- जैसे सुवर्णमय भाव से सुवर्णात्मक ही कुण्डलादिक होते हैं और लोहमय भाव से लोहरूप ही कड़े आदि उत्पन्न होते हैं वैसे ही अज्ञानी जीव के अज्ञानमय भाव से सम्पूर्ण अज्ञानमय ही भाव उत्पन्न होते हैं और ज्ञानी जीव के ज्ञानमय भाव से सम्पूर्ण भाव ज्ञानमय ही उत्पन्न होते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy