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कर्तृ-कर्माधिकार
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विशेषार्थ - जैसे जीव का तन्मयभाव होने से उपयोग जीव से अभिन्न है, वैसे ही जड़ क्रोध भी यदि जीव से अभिन्न माना जावे तो चिद्रूप और जड़ का अभेद होने से जीव के उपयोगमयत्व के सदृश जड़ क्रोध के साथ भी तन्मयता की आपत्ति आ जावेगी और उसके आनेपर जो जीव है वही अजीव हो जावेगा, तब एक द्रव्य का लोप नियम से मानना पड़ेगा। इसी प्रकार प्रत्यय, कर्म तथा नोकर्मों की जीव के साथ अभिन्नता मानने से यही दोष आवेगा । इसलिये इस दोष के भय से उपयोगस्वरूप आत्मा अन्य है और जड़स्वभाव क्रोध अन्य है, ऐसा स्वीकार करना ही श्रेयस्कर है। तब जैसे उपयोगस्वरूप जीव से जड़स्वभाव क्रोध अन्य है, ऐसे ही प्रत्यय, कर्म और नोकर्म भी अन्य हैं क्योंकि जड़स्वभाव वाले ये तीनों ही हैं, और इसलिए जड़स्वभावता की अपेक्षा क्रोध और इन तीनों में कोई विशेषता नहीं है। इस तरह जीव और प्रत्यय आदि में एकता की अनुपपत्ति हैं ।। ११३ - ११५ ।।
१.
किञ्च शुद्धनिश्चयनयेन जीवस्याकर्तृत्वमभोक्तृत्वं च क्रोधादिभ्यश्च भिन्नत्वं च भवतीति व्याख्याने कृते सति द्वितीयपक्षे व्यवहारेण कर्तृत्वं भोक्तृत्वं च क्रोधादिभ्यश्चाभिन्नत्वं च लभ्यते एव। कस्मात् ? निश्चय-व्यवहारयोः परस्परसापेक्षत्वात्। कथमिति चेत् ? यथा दक्षिणेन चक्षुषा पश्यत्ययं देवदत्त इत्युक्ते वामेन न पश्यतीत्यनुक्तं सिद्धमिति। ये तु पुनरेवं परस्परसापेक्षनयविभागं न मन्यन्ते सांख्यसदाशिवमतानुसारिणस्तेषां मते यथा शुद्धनिश्चयनयेन कर्ता न भवति क्रोधादिभ्यश्च भिन्नो भवति तथा व्यवहारेणापि। ततश्च क्रोधादिपरिणमनाभावे सति सिद्धानामिव कर्मबन्धाभावः । कर्मबन्धाभावे संसाराभाव:, संसाराभावे सर्वदा मुक्तत्वं प्राप्नोति । स च प्रत्यक्षविरोधः, संसारस्य प्रत्यक्षेण दृश्यमानत्वादिति। (तात्पर्यवृत्तिः ) ।
यहाँ शुद्धनिश्चयनय से जीव अकर्ता है, अभोक्ता है तथा क्रोधादिक से भिन्न है ऐसा व्याख्यान किये जाने पर दूसरे पक्ष में व्यवहारनय से जीव कर्ता है और भोक्ता है तथा क्रोधादिक से अभिन्न हैं, यह बात स्वयं प्राप्त होती है क्योंकि निश्चय और व्यवहारनय परस्पर में सापेक्ष हैं। जिस प्रकार देवदत्त दाहिने नेत्र से देखता है, यह कहने पर बायें नेत्र से नहीं देखता, यह बात बिना कहे ही आ जाती है उसी प्रकार निश्चय के कहने पर व्यवहार का पक्ष बिना कहे ही आ जाता है। किन्तु जो लोग परस्पर में सापेक्षनयविभाग को नहीं मानते हैं वे सांख्य अथवा सदाशिव मत के अनुयायी है। उनके मत में जिस प्रकार जीव शुद्धनिश्चयनय से कर्ता नहीं होता तथा क्रोधादिक से भिन्न रहता है उसी प्रकार व्यवहार से भी है। तब ऐसा मानने पर क्रोधादिरूप परिणमन का अभाव होने पर सिद्धों के समान कर्मबन्ध का अभाव हो जावेगा, कर्मबंध का अभाव होने पर संसार का अभाव हो जायगा, संसार का अभाव होने पर सर्वदा मुक्तपन का प्रसङ्ग आ जावेगा और वह प्रत्यक्ष का विरोध कहलावेगा, क्योंकि संसार प्रत्यक्ष दिखाई देता है ।
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