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________________ १५४ समयसार ये गुणस्थान आत्मा की शुद्ध परिणतिरूप नहीं है तथा पुद्गलमय अचेतन कर्मों के उदय से उत्पद्यमान होने के कारण निमित्तप्रधानदृष्टि के कथन में अचेतन हैं। यहाँ अचेतनशब्द से घटपटादिक के सभान सर्वथा जडरूप हैं, ऐसा नहीं समझना चाहिये, किन्तु आत्मा की शुद्ध चैतन्य परिणति से भिन्न हैं, ऐसा आशय समझना चाहिये। ये गुणस्थान ही कर्मों के कर्ता हैं, गुणस्थान क्योंकि पुद्गलात्मक हैं इसलिये पुद्गल ही पुद्गलकर्मों का कर्ता है, जीव नहीं है, यह बान सिद्ध हो जाती है। इस तरह 'जीव: करोति यदि पुद्गलकर्म नैव' इस कलशा में जो यह आशंका उठाई गई थी कि यदि जीव पुद्गल कर्म का कर्ता नहीं है तो फिर उसका कर्ता कौन है? इस आशंका का उत्तर देते हुए कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान ही कर्मों के कर्ता हैं तथा वे गुणस्थान पुद्गलकर्म के विपाक से होने के कारण पुद्गलरूप हैं।।१०९-११२।। आगे जीव और प्रत्ययों में एकपन नहीं बन सकता, यह दिखाते हैंजह जीवस्स अणण्णुवओगो कोहो वि तह जदि अणण्णो। जीवस्साजीवस्स य एवमणण्णत्तमावण्णं ।।११३।। एवमिह जो दु जीवो सो चेव दुणियमदो तहाजीवो। अयमेयत्ते दोसो पच्चय-णोकम्म-कम्माणं ॥११४।। अह दे अण्णो कोहो अण्णुवओगप्पगो हवदि चेदा। जह कोहो तह पच्चय कम्मं णोकम्ममवि अण्णं ।।११५।। (त्रिकलम्) अर्थ- जिस प्रकार उपयोग जीव से अभिन्न है उसी प्रकार यदि क्रोध भी जीव से अभिन्न माना जावे तो ऐसा मानने से जीव और अजीव दोनों में एकत्व आता है। _इस तरह जीव और अजीव में एकत्व मानने से संसार में जो जीव है वही नियम से अजीव हो जायेगा। जीव और क्रोध के एकत्व में जो दोष आता है वही दोष प्रत्यय, कर्म और नोकर्मों के एकत्व में भी आता है। इस दोष से बचने के लिए यदि तेरे मन में क्रोध अन्य है और उपयोगात्मक आत्मा अन्य है तो जिस प्रकार क्रोध अन्य है उसी प्रकार प्रत्यय, कर्म तथा नोकर्म भी अन्य हैं, ऐसा मानना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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