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________________ कर्तृ-कर्माधिकार १५३ अर्थ- निश्चय से बन्ध के करनेवाले सामान्यरूप से चार कारण कहे हैं। उनके नाम मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग जानना चाहिये । इन्हीं के मिथ्यादृष्टि आदि को लेकर सयोगकेवलीपर्यन्त तेरह भेद कहे गये हैं, क्योंकि ये गुणस्थान पुद्गल कर्म के उदय से होते हैं, अत: अचेतन हैं। यदि ये गुणस्थान कर्मों को करते हैं तो आत्मा उनका भोक्ता नहीं होता है । ये प्रत्यय (कारण) गुणस्थान नामवाले हैं तथा क्योंकि ये ही कर्मों को करते हैं, इसलिये जीव अकर्ता है। ये गुणस्थान इन कर्मों को करते हैं । विशेषार्थ - निश्चय से पुद्गलकर्म का कर्ता एक पुद्गलद्रव्य ही है। उसीके विशेष मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग हैं, जो सामान्यरूप से बन्ध के चार हेतु कहे गये हैं। ये चार हेतु ही भेद करने पर मिथ्यादृष्टि आदि को लेकर सयोगकेवली पर्यन्त तेरह प्रकार के हैं। ये तेरह गुणस्थान पुद्गलकर्म के उदय के विकल्पस्वरूप होने से अत्यन्त अचेतन हैं, अतः अचेतन पुद्गल कर्मों के साथ इनका व्याप्यव्यापकभाव बन जाता है। इस स्थिति में यदि ये किसी पुद्गलकर्म को करें तो करें, इसमें जीव का क्या आया ? अर्थात् अचेतन गुणस्थान अचेतन पुद्गलकर्मों के कर्ता यदि होते हैं तो हों, उनके कर्तृत्व से जीव में कर्तृत्व सिद्ध नहीं हो सकता। यदि कदाचित् यह तर्क किया जावे कि पुद्गलात्मक मिथ्यात्वादि भावों को वेदन करता हुआ जीव स्वयमेव मिथ्यादृष्टि होकर पुद्गलकर्म को करता है तो निश्चय से यह अज्ञान है क्योंकि आत्मा का उन पुद्गलमय भावों के साथ भाव्यभावकभाव का अभाव है। इस स्थिति में जब आत्मा पुद्गलमय मिथ्यात्व आदि भावों का वेदक ही नहीं है तब पुद्गलमय मिथ्यात्वादि कर्मों का कर्ता किस प्रकार हो सकता है ? इससे यह सिद्धान्त आया कि पुद्गलद्रव्यमय चार सामान्य प्रत्ययों के विकल्पस्वरूप तथा गुणस्थान के नाम से व्यवहृत होनेवाले जो तेरह प्रकार के विशेष प्रत्यय हैं वे अकेले ही अर्थात् शुद्ध आत्मस्वरूप से निरपेक्ष रहकर ही कर्मों को करते हैं। इस तरह जीव पुद्गलकर्मों का अकर्ता है, उक्त तेरह गुणस्थान ही पुद्गलकर्मों के कर्ता हैं और वे गुणस्थान पुद्गलद्रव्य के विपाक से जायमान होने के कारण पुद्गलद्रव्य ही हैं। इससे सिद्ध हुआ कि पुद्गल कर्मों का कर्ता एक पुद्गलद्रव्य ही है । मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग के निमित्त से आत्मा के गुणों में जो तारतम्य होता है उसे गुणस्थान कहते हैं। ये गुणस्थान यद्यपि आगम में चौदह बतलाये गये हैं, परन्तु चौदहवें गुणस्थान में मोह और योग दोनों का अभाव हो जाने से कर्मबन्ध का कुछ भी कारण नहीं है, इसलिये यहाँ बन्ध के विशेष प्रत्ययों में मिथ्यादृष्टि आदि को लेकर सयोगकेवलीपर्यन्त तेरह गुणस्थान ही बतलाये हैं। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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