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समयसार
अब आगे यदि जीव पुद्गलकर्म का कर्ता नहीं है तो फिर कौन है? यह आशङ्का उठा कर कलशा द्वारा आगामी कथन की भूमिका दिखाते हैं
वसन्ततिलकाछन्द जीव: करोति यदि पुद्गलकर्म नैव
कस्तर्हि तत्कुरुत इत्यभिशङ्कयैव। एतर्हि तीव्ररयमोहनिवर्हणाय
संकीर्त्यते शृणुत पुद्गलकर्मकर्तृ।।६३।। अर्थ- यदि जीव पुद्गलकर्म को नहीं करता है तो फिर कौन करता है? इस आशङ्का से ही इस समय तीव्र वेगशाली मोह को दूर करने के लिये पुद्गलकर्म के कर्ता का निरूपण किया जाता है, हे भव्यजनों! सुनो।
भावार्थ- ऊपरी गाथाओं में यह कथन किया गया है कि पुद्गलकर्म का कर्ता जीव नहीं है। इस स्थिति में इस आशङ्का का उठना स्वाभाविक है कि यदि इन्हें जीव नहीं करता है तो कौन करता है? क्योंकि व्याप्यव्यापकभाव का अभाव होने से जिस प्रकार जीव इनका कर्ता नहीं है उसी प्रकार निर्बद्धि होने से पद्गल भी इनका कर्ता नहीं हो सकता। इस प्रकार पुद्गलकर्म के कर्तापन के विषय में जो अत्यन्त तीव्र अज्ञान फैला हुआ है उसका निराकरण करने के लिये पुद्गलकर्म के कर्ता का वर्णन किया जाता है। हे भव्यजनों! उसे श्रवण करो।।६३।।
आगे कर्मबन्ध के कारण बतलाते हैंसामण्ण्पच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो। मिच्छत्तं अविरमणं कसाय-जोगा य बोद्धव्वा ।।१०९।। तेसिं पुणो वि य इमो भणिदो भेदो दु तेरस-वियप्पो । मिच्छादिट्ठी आदी जाव स जोगिस्स चरमंतं ।।११०।। एदे अचेदणा खलु पुग्गलकम्मुदयसंभवा जह्या । ते जदि करंति कम्मं ण वि तेसिं वेदगो आदा ।।१११।। गुणसण्णिदा दु एदे कम्मं कुव्वंति पच्चया जह्मा । तह्मा जीवोऽकत्ता गुणा य कुव्वंति कम्माणि ।।११२।।
(चतुष्कम्)
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